________________
श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ ।। जनवरी-मार्च २००७
आगमों में अनगार के प्रकार : परिव्राजक, तापस और आजीवक के विशेष सन्दर्भ में
डॉ. विजय कुमार*
'अगारं - घरं जस्स नत्थि सो अणगारो' अर्थात् जिसके आगार नहीं है, घर नहीं है, वह अनगार है, मुनि है। श्रमण, संयत, मनि, ऋषि, साधु, वीतरागर आदि अनगार के समानार्थक हैं। अनगार के ठीक विपरीत जिसके घर है वह आगारी है। किन्तु प्रश्न होता है कि क्या जो घर से निवृत्त है वही अनगारी और जिसके घर है वह आगारी है। यदि अनगारी और आगारी की यही परिसीमा है, तब तो जो साधक देव मंदिर में रहते हैं वे भी आगारी कहलायेंगे और जो विषयतृष्णा से निवृत नहीं लेकिन किसी कारणवश वन में रहते हैं वे अनगारी की सीमा में आ जायेंगे। जैन दृष्टि अनगार और आगार की भेद-रेखा इस आधार पर नहीं करती। यहाँ यह भेद-रेखा भावागार विवक्षित है। भावागार से अभिप्राय है - चारित्रमोहनीय के उदय से जो परिणाम घर से निवृत्त नहीं है। यह भावागार जिसमें है वह वन में निवास करते हुए भी आगारी है और इस प्रकार के परिणाम जिसमें नहीं हैं वह घर में रहता हुआ भी अनगारी है।
आगमों में अनगार के पर्याय के रूप में परिव्राजक, तापस और आजीवक के उल्लेख मिलते हैं। ये उल्लेख 'आचारांग', 'आचारचूला", 'व्याख्याप्रज्ञप्ति'", 'ज्ञाताधर्मकथांग' और 'औपपातिक' में उपलब्ध होते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति' में परिव्राजक के १४ प्रकार, ‘ज्ञाताधर्मकथांग' में १४ प्रकार और 'औपपातिक' में ९ तथा तापस के २७ प्रकार मिलते हैं। इसी प्रकार 'औपपातिक' में आजीवक के ७ प्रकार मिलते हैं। 'औपपातिक' का एक उद्धरण विशेष द्रष्टव्य है जिसमें जाति के आधार पर भी परिव्राजकों का विभाजन किया गया है जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। कहा गया है
तत्थ खलु इमे अट्ठ माहण परिव्वायगा भवंति। तंजहाकण्णे य करकंडे य अंबडे य परासरे।
कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए।। * प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी०आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी-२१००५