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तीस वर्ष और तीन वर्ष : २१
पके आमों को तोड़ने की प्रक्रिया से इसे समझाया है। इसके विपर्यास में, ईसा ने केवल तीन (कापोत, पद्म व शुक्ल) का ही नामोल्लेख किया है। इसका पूर्ण विवरण नहीं है।
ईसा ने मुख्यत: गृहस्थों एवं सम्भवत: संतों को समान उपदेश-संहिता प्रदान की। इसीलिये आज भी ईसाई धर्म में साधु-संस्था बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसके विपर्यास में, महावीर ने गृहस्थों एवं साधुओं के लिये पृथक्-पृथक् स्थूल एवं सूक्ष्म आचार-संहिता दी। फलत: जैनों में साधु-संस्था आज भी महत्त्वपूर्ण एवं मार्गदर्शक बनी हुई है।
१०. महावीर की साध संस्था में अहिंसात्मक दृष्टि के कारण वर्षाकालीन चातुर्मास की परम्परा है, जो धर्म-प्राचार एवं संरक्षण का ही एक रूप है।यह परम्परा ईसाई धर्म में नहीं है।।
११. भगवान महावीर ने रात्रि भोजन का निषेध किया है, जबकि बाइबिल इस विषय में मौन है। प्रायः ईसाई रात्रि भोजी रहे हैं और हैं।
१२. महावीर के मार्ग में आत्महित एवं परहित को युगपत् रूप से मुक्ति का साधन माना गया है। ईसा के मार्ग में केवल परहित की प्रक्रिया ही प्रमुख बनी है। जैनों में मुक्ति के लिये 'मुक्ति' शब्द प्रचलित है, जबकि बाइबिल में इसे 'स्वर्ग के राज्य' के रूप में भी बताया गया है। जैनों में 'मुक्ति' (पाप या कर्म-निर्जरा) अपरिग्रही या नग्न वेश में मानी गई है। जबकि ईसा के धर्म में सदेह ‘स्वर्ग के राज्य' में जाने की चर्चा है, जैसा कि माता मरियम तथा ईसा के विवरण से स्पष्ट है।
__ महावीर एक भौतिक एवं नश्वर स्वर्ग (देवी-देवता) और एक सिद्धों का अमर स्वर्ग (मोक्ष) मानते हैं। इसके विपर्यास में, ईसा मुक्ति को ही अमर स्वर्ग का राज्य मानते हैं जहाँ ईश्वर है और जिसके दायें-बायें मुक्त जीव विराजते हैं एवं अनंत आनंद का अनुभव करते हैं। ईसा का ईश्वर सक्रिय होता है और विश्व के पाप मिटाने के लिये ईसा के रूप में अवतरित होता है। यह मान्यता हिन्दुओं की गीता के अनुरूप है।
जैनों के मोक्ष में ईश्वर नहीं होता, सभी मुक्त जीव समान, स्वतंत्र एवं अनंत चतुष्टयी होते हैं। वे परमानन्द में रहते हैं। मुक्त जीव नि:स्वभावी नहीं होते। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं।
१३. महावीर के अनुसार, धर्म सार्वत्रिक है। तीर्थंकर या धर्मोन्नायक सर्वत्र उत्पन्न हो सकते हैं। सभी को अवतार माना जा सकता है। केवल महात्मा ईसा को ही अवतार मानने की धारणा बुद्धिवाद की प्रेरक नहीं लगती। विश्व के अधिकांश धर्म