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: श्रमण, वर्ष ५८, अंक १ / जनवरी-मार्च २००७
महावीर का कर्मवाद गतिशील कार्यकारणवाद पर आधारित है। इसका रूप स्थिर यांत्रिक नहीं है। यह 'जो करे, सो भोगे' का सिद्धांत है। इसे रहस्यवाद या पलायनवाद कहना वैज्ञानिक मनोवृत्ति का परिचायक नहीं है। कर्मवाद के साथ पुनर्जन्मवाद की धारणा भी जुड़ी हुई है। इससे मनुष्य दूरदर्शी बनकर स्व-पर-हित साधना करता है। यह 'करे कोई, भरे कोई', का समर्थन नहीं करता। इससे तो पापवृद्धि ही संभावित है। इससे मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं विरोधियों के प्रति समभाव के भाव नहीं पनपते हैं। 'जैसा तुम बोओगे, वैसा तुम काटोगे, के रूप में ईसा भी कर्मवाद स्वीकार करते हैं पर उसका विवेचन तो जैनों में भी पाया जाता है।
५. एक विदुषी ने जैनों की अहिंसा की सर्वमान्य धारणा को ही अव्यावहारिक, अवैज्ञानिक एवं असंगत बताया है। यद्यपि ईसा के दस आदेशों में यह भी अन्यतम है, बाइबिल में मंदिरों में पशुबलि का विरोध करते हुए कहा गया है कि ईश्वर कैसे अपनी संतानों की बलि से प्रसन्न हो सकता है ?
वस्तुत: अहिंसा के दो अर्थ हैं
अ. आवश्यक हिंसा का अल्पीकरण। यह जीवन की सुखमयता के लिये अनिवार्य है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि अनावश्यक हिंसा से निवर्तन हो ।
ब. इसका सकारात्मक अर्थ प्रेम, दया, सहानुभूति, करुणा आदि का सदाचार है । अत: अपने स्वार्थ के कारण 'जीवो जीवस्य भोजनं' के आधार पर 'अहिंसा' के सिद्धांत को नकारना असंगत है। ईश्वर भी प्रेम ही चाहता है, हिंसा नहीं ।
६. यद्यपि दोनों धर्म ‘त्रिरत्न' मानते हैं, पर उनके उद्देश्यों में समानता होने पर भी उनके नामों में अंतर है :
जैन
विश्वास / श्रद्धा, ज्ञान, सदाचार (चारित्र) विश्वास, आशा, प्रेम पिता,
ईसाई
नई मान्यता
पुत्र, रूह
७. महावीर का धर्म सभी प्राणियों- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक, मनुष्य, पशुओं एवं नारकियों तथा देवों तक के हित की बात करता है, जबकि ईसाई धर्म मुख्यतः मानव- वह भी विशेषतः दीन मानव के हित की ही बात करता है।
८. महावीर ने मनुष्यों के भावों को आकलित करने के लिये छ: लेश्याओं (आभामंडल) की धारणा को पूर्ण रूप से विकसित किया है और आम के पेड़ से