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१८ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७
करने पर भी ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व सिद्ध नहीं होता। साथ ही, ईश्वर जगत् की सृष्टि नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पास घर के लिये मिट्टी आदि के समान निर्माण के साधन नहीं हैं और नित्य होने से वह क्रियाशून्य भी है। मत-मतांतर के शास्त्रों को भी ईश्वर का बनाया नहीं मान सकते, अन्यथा उनमें ईश्वर का ही खण्डन-मण्डन क्यों होता? फलत: तर्कवाद से ईश्वर एवं उसके सृष्टिकर्तृत को सिद्ध नहीं किया जा सकता। उसकी पृष्ठभूमि श्रद्धा ही हो सकती है जहाँ तर्क काम नहीं करता।
___भगवान महावीर ने सृष्टिकर्ता ईश्वर के बदले सर्वज्ञानी ईश्वरत्व का मत प्रस्तुत किया है। यह क्षमता सभी प्राणियों में है, जो कर्मों के कारण तिरोहित रहती है। यह तिरोहण प्रार्थना, भजन (भक्तिवाद) एवं ध्यान, तपस्या (साधना) आदि से आविर्भाव (वस्तुधर्म) में बदल जाता है। इससे मानव स्वयं ही सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनंत शक्तिमान् व अनंत सुखी बन जाता है। फलत: भगवान महावीर एक ईश्वर के बदले अनेक या अनंत ईश्वरवाद की स्थापना करते हैं। अत: वे निपट अनीश्वरवादी नहीं है, अपितु अनेक व्यक्तिगत ईश्वरवादी हैं। . कई ईसाई लेखकों और विद्वानों ने जैनों की मान्यताओं पर ईश्वर को न मानने के कारण अनेक आरोप लगाये हैं। इनमें अधिकांश आरोप जैन धर्म के सिद्धांतों की सम्यक जानकारी न होने के कारण हैं। जैन मनुष्य को स्वयं ही अपना भाग्यविधाता मानते हैं। अत: उन्हें ईश्वर के (१) प्रसाद, (२) क्षमादान या (३) करुणा की आवश्यकता नहीं है। वे अपने पाप कर्मों या दुःखों को साधना के द्वारा निर्जरित कर पवित्रता प्राप्त करते हैं। फलत: उन्हें ईश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता नहीं है।
जैन धर्म को समझे बिना ही 'पलायनवादी' या 'निराशावादी' कहना अत्यन्त भ्रामक है। स्वर्ग-मोक्ष की, अपने या दूसरों के कल्याण की प्रत्याशा आशावाद में ही हो सकती है। जैन साधु अपना घर-बार छोड़ता है और सारे विश्व को अपना परिवार मानने लगता है। इसमें पलायनवाद नहीं, व्यक्तित्व का विलोपन है जो विश्वास एवं समर्पण की प्रक्रिया में होता है। यह स्वयं एवं समाज के सुख-वर्धन का प्रतीक है। इसमें पलायन या निराशा कहां दिखती है?
जैन साधु एवं गृहस्थ अपने आध्यात्मिक उत्थान के साथ अपने उपदेशों एवं प्रवृत्तियों द्वारा दूसरों की भी प्रगति के मार्गदर्शक होते हैं। उनका उद्देश्य आत्महित के साथ परहित का युगपत् सम्पादन है। जैनों के मुक्त एवं सिद्ध जीव कृतकृत्य होने पर अनंत सुख एवं अमरत्व में रह रहे हैं। मुक्त जीवों की यही स्थिति ईसाई धर्म में भी बताई गई है। उनमें अक्रियता की धारणा उनके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वभाव के कारण सही नहीं है।