Book Title: Sramana 2006 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ प्राकृत कथा - साहित्य में सांस्कृतिक चेतना लिए जिस अन्तर्निगूढ निर्वैयक्तिकता या अनाग्रहशीलता या धर्मनिरपेक्षता या सांस्कृतिक अनुराग की अपेक्षा होती है, उससे प्राकृत - कथाकार अपने को प्रतिबद्ध नहीं रख सके। वे अनेकान्त, अपरिग्रह एवं अहिंसा का अखण्ड वैचारिक समर्थन करते रहे और अपने धर्म की श्रेष्ठता का डिण्डिमघोष भी । : ऐसा इसलिए सम्भव हुआ कि वैदिक धर्म के यज्ञीय आडम्बरों और अनाचारों से विमुक्ति के लिए भगवान महावीर ने लोकजीवन को अहिंसा और अपरिग्रह से सम्पुटित जिस अनेकान्तवादी अभिनव धर्म का सन्देश दिया था, वह राजधर्म के रूप में स्वीकृत था, इसलिए उसके प्रचार-प्रसार का कार्य राज्याश्रित बुद्धिवादियों या दर्शन, ज्ञान और चारित्र के सम्यक्त्व द्वारा मोक्ष के आकांक्षी श्रुतज्ञ तथा श्रमण कथाकारों का नैतिक एवं धार्मिक इतिकर्त्तव्य था। इसके अतिरिक्त, कथा-कहानी प्रचार-प्रसार का अधिक प्रभावकारी माध्यम सिद्ध होती है, इसलिए कथा के व्याज से धर्म और नीति की बातें बड़ी सरलता से जनसामान्य को हृदयंगम कराई जा सकती हैं। यही कारण है कि जैनागमोक्त धर्म के आचारिक और वैचारिक पक्ष की विवेचना और उसके व्यापक प्रचार के निमित्त प्राकृतकथाएँ अनुकूल माध्यम मानी गई हों। अतएव, तत्कालीन लोकतन्त्रीय राजधर्म के प्रति किसी भी लोकचिन्तक कलाकार की पूज्य भावना सहज सम्भाव्य है, जो उसके राष्ट्रीय दायित्व के पालन के प्रति सजगता का संकेतक भी है। स्पष्ट है कि प्राकृत - कथाकारों की रचना - प्रतिभा धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में सममति थी। धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना, दार्शनिक प्रमा तथा साहित्यिक विदग्धता के शास्त्रीय समन्वय की प्रतिमूर्ति प्राकृत के कथाकारों की कथाभूमि एक साथ धर्मोद्घोष से मुखर, दार्शनिक उन्मेष से प्रखर, साहित्यिक सुषमा से मधुर तथा सांस्कृतिक चेतना से जीवन्त है । इसीलिए, प्राकृत-कथाओं के मूल्य निर्धारण के निमित्त अभिनव दृष्टि और स्वतन्त्र मानसिकता की अपेक्षा है । प्राकृत-कथा न केवल धर्मकथा है, न ही कामकथा और न अर्थकथा । इसके अतिरिक्त, प्राकृत-कथा को केवल मोक्षकथा भी नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः प्राकृत-कथा मिश्रकथा है, जिसमें पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की सिद्धि का उपाय निर्देशित हुआ है। अनुभूतियों की सांगोपांग अभिव्यक्ति मिश्रकथा में ही सभ्भव है । जीवन की समस्त सम्भावनाओं के विन्यास की दृष्टि से प्राकृत - कथा की द्वितीयता नहीं है। सामान्यतया, प्राकृत-कथाओं की संरचना - शैली का पालि-कथाओं से बहुशः साम्य परिलक्षित होता है। फिर भी, दोनों में उल्लेखनीय अन्तर यह है कि पालि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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