Book Title: Sramana 2004 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ ६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ दक्षिण लोक का अधिपति और ईशान उत्तरलोक का अधिपति, उसी प्रकार पांच स्थावर कायों के भी क्रमश: इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति और प्राजापत्य - अधिपति हैं। स्थानांग में प्राप्त स्थावरकाय के ये नाम प्रचलित नामों के साथ किस प्रकार से सामंजस्य रखते हैं? स्थानांग की टीका में इसका कोई उल्लेख नहीं है। केवल अमुक को अमुक कहा जाता है, यही उल्लेख है। स्थावर काय के सम्बन्ध में ऐसा उल्लेख अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। स्थानांग स्थावरकाय के प्रचलित नामों को छोड़कर अन्य नामों का उल्लेख क्यों करता है? यह भी अन्वेषणीय है। त्रस-स्थावर के विभाग की आगमकालीन अवधारणा आचारांग से लेकर विपाकसूत्र तक ग्यारह अंग आगमों में, औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि उपांग आगमों में, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि मूल आगमों में पृथ्वीकाय, अप्काय आदि पांचों को एक साथ स्थावरकाय के रूप में उल्लिखित नहीं किया है। बल्कि स्थानांग, उत्तराध्ययन एवं जीवाजीवाभिगम में तो छह कायों में से तीन को स्थावर एवं तीन को त्रस कहा है। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य तक यही अवधारणा प्रचलित है।। दशवैकालिक में ‘षड्जीवनिकाय' के अन्तर्गत त्रसकाय का वर्णन हुआ है। वहां त्रसकाय में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव का ग्रहण हुआ है।२० इसका तात्पर्य हुआ कि इनके अतिरिक्त जीव स्थावर हैं। एकेन्द्रिय का उल्लेख त्रसकाय में नहीं है। अत: एकेन्द्रिय जीव स्थावर होते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय एकेन्द्रिय हैं।२१ प्रज्ञापना में संसारसमापनक जीवों का उल्लेख पांच इन्द्रियों के माध्यम से हआ हैं। वहां स्थावरकाय एवं त्रसकाय के भेद से जीवों का विभाग नहीं है। जबकि जीवाजीवाभिगम में जीवों का विभाग त्रस एवं स्थावर के आधार पर हुआ है। आगम व्याख्या साहित्य में त्रस एवं स्थावर त्रस एवं स्थावर के सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि जैन आगम साहित्य में पृथ्वी आदि पांच कायों को एक साथ स्थावर काय के रूप में अभिव्यंजित नहीं किया है। उत्तरवर्ती टीका साहित्य में उनका उल्लेख स्थावरकाय के रूप में हो गया है। उत्तराध्ययन के टीकाकार तेजस्काय एवं वायुकाय को स्थावरकाय ही मानते हैं। उत्तराध्ययन में इनका उल्लेख त्रसकाय के रूप में है। टीकाकार ने लब्धित्रस एवं गतित्रस के भेद से त्रस जीव दो प्रकार के माने हैं। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव लब्धित्रस हैं। अग्नि और वायु गतित्रस हैं। यद्यपि इनके स्थावर नामकर्म का उदय है फिर भी गतिशीलता के कारण ये त्रस कहलाते हैं।२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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