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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ११
नहीं है, बलिक एक वैज्ञानिक सत्य है। जैनों ने रात्रि-भोजन निषेध के माध्यम से पयारवरण और मानवीय स्वास्थ्य दोनों के संरक्षण का प्रयास किया है। दिन में भोजन पकाना और खाना, प्रदूषण से मुक्त रखना है क्येकि रात्रि एवं कृत्रिम प्रकाश में भोजन में विषाक्त सूक्ष्म प्राणियों के गिरने की सम्भावना प्रबल होती है, पुन: देर रात में किये गये भोजन का परिपाक भी सम्यक् रूपेण नहीं होता है।
आज जो पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है उसमें वन्य जीवों और जलीय जीवों का शिकार भी एक कारण है। आज जलीय जीवों की हिंसा के कारण जल में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह तथ्य स्पष्ट है कि मछलियाँ आदि जलीय जीवों का शिकार जल-प्रदूषण का कारण बनता जा रहा है। इसी प्रकार कीट-पतंगे एवं वन्य जीव भी पर्यावरण संतुलन के बहुत बड़े आधार हैं। आज एक ओर वनों के कट जाने से उनके संरक्षण के क्षेत्र समाप्त होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर फर, चमड़े, मांस आदि के लिए वन्य जीवों का शिकार बढ़ता जा रहा है। जैन परम्परा में कोई व्यक्ति तभी प्रवेश पा सकता है जबकि वह मांसाहार न करने का व्रत लेता है। शिकार व मांसाहार न करना जैन गृहस्थ की प्रथम शर्त है। मत्स्य, मांस, अण्डे एवं शहद का निषेध कर जैन आचार्यों ने जीवों के संरक्षण के लिए भी प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण प्रयत्न किये हैं।
____ आज विश्व में आणविक एवं रासायनिक शस्त्रों में वृद्धि हो रही है और उनके परीक्षणों तथा युद्ध में उनके प्रयोगों के माध्यम से भी पर्यावरण में असन्तुलन उत्पन्न होता है तथा वह प्रदूषित होता है। इनका प्रयोग न केवल मानव जाति के लिए अपितु समस्त प्राणि-जाति के अस्तित्व के लिए खतरा है। आज शस्त्रों की अंधी दौड़ में हम न केवल मानवता की अपितु इस पृथ्वी पर प्राणि-जगत् की अन्त्येष्टि हेतु चिता तैयार कर रहे हैं। भगवान् महावीर ने इस तथ्य को पहले ही समझ लिया था कि यह दौड़, मानवता की सर्व विनाशक होगी। आचारांग में उन्होंने कहा- अत्थि सत्थं परेणपरं-नत्थि असत्थं परेणपरं अर्थात् शस्त्रों में एक से बढ़कर एक हो सकते हैं, किन्तु अशस्त्र अहिंसा से बढ़कर कुछ नहीं है। यदि हमें मानवता के अस्तित्व की चिन्ता है तो पर्यावरण के सन्तुलन का ध्यान रखना होगा एवं आणविक तथा रासायनिक शास्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाना होगा।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि जैन धर्म में पर्यावरण के संरक्षण के लिए पर्याप्त रूप से निर्देश उपलब्ध हैं। उसकी दृष्टि से प्राकृतिक साधनों का असीम दोहन जिनमें बड़ी मात्रा में भू-खनन, जल-अवशोषण, वायु प्रदूषण, वनों को काटने आदि के कार्य होते हैं, वे महारम्भ की कोटि में आते हैं जिसको जैनधर्म में नरक-गति का कारण बताया गया है। जैनधर्म का संदेश है प्रकृति एवं प्राणियों का विनाश करना नहीं, अपितु उनका सहयोगी बनकर जीवन-जीना ही मनुष्य का कर्तव्य है। पर्यावरण
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