Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ ३२ यह पृथ्वी प्रत्युत् ब्रहमाण्ड की सारी पृथ्वियाँ, यथा-ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र, सम्पूर्ण वायु मण्डल, जलाशय तथा अग्निस्त्रोत सब के सब मुख्यतः एकेन्द्रिय जीव हैं, जिनके अधीन असंख्यात त्रसकाय जीवों की द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय योनियाँ आश्रय लिए हुए हैं। इस प्रकार जैन मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड अथवा लोक-रचना जीव तत्व से ओत-प्रोत है। सम्पूर्ण लोक में जीव एवं अजीव ये दो ही तत्व हैं, किन्तु जीव की प्रधानता के कारण सम्पूर्ण पर्यावरण एक जीवंत इकाई है। जैन धर्म का दार्शनिक आधार है कि सम्पूर्ण पर्यावरण एक जीवंत इकाई है। सम्पूर्ण लोक रचना में जीव तत्व की प्रमुख भूमिका है। इसी उपग्रह से संसार का सामूहिक जीवन स्थिर है और उसी के निमित्त से लोक रचना का संपूर्ण पर्यावरण जीवंत है। जैन धर्म का नारा- “जीओ और जीने दो' इस में पर्यावरण के जीव तत्व के प्रति आदर भाव निहित है और पर्यावरण की जैन अवधारणा में शामिल है- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, ऊर्जा, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, हर प्रकार के कीट-पतंग, जीवजन्तु, स्वयं मनुष्य और यहाँ तक कि न दिखाई देने वाली देव एवं नरक योनियाँ भी। इस समग्र पर्यावरण का आशय या तात्पर्य है इसे अपनी तरह जीने और मरने के मौलिक अधिकार की स्वीकृति। दूसरे शब्दों में पर्यावरण सुरक्षा, स्वयं पर्यावरण के जीव तत्व द्वारा, पर्यावरणीय सुख के लिए उसमें किसी भी प्रकार की हस्तक्षेप न करना है। जैन धर्म पर्यावरण को मनुष्य के सुख का उपकरण मात्र नहीं मानता। पर्यावरण की उदारता का लाभ उठाते हुए उसे अपना गुलाम बनाना, अपनी लिप्सा के लिए उसका विनाश या तोड़-फोड़ करना जैन दृष्टि से घोर अपराध है। हिंसक मनुष्य घोर नारकीय दुखों का बंध करता है और अपनी दुःख श्रृंखला को कभी न समाप्त होने वाली आयु प्रदान करता है। पर्यावरण को अपने ढंग से चलने देना, उसमें कम से कम हस्तक्षेप करना पर्यावरण सुरक्षा की स्वाभाविक गारंटी है। मितव्ययता जैन धर्म-दर्शन के व्यावहारिक पहल की रीढ़ है। इसकी परिभाषा है-विवेकसम्मत आवश्यकता की पूर्ति के लिए कम से कम वस्तुओं का उपभोग। मितव्ययता की पूर्व शर्त है, वैराग्य और त्याग भाव, जिससे फलित होती है पर वस्तुओं की लिप्सा की कमी। कम हो चुकी या कम होती हुई लिप्साओं से वस्तुओं की कम से कम आवश्यकताओं की अनुभूति पैदा होती है और इसका मापदण्ड है वस्तुओं का कम से कम मितव्ययी उपयोग। जीने के हर कदम पर जैन इस मितव्ययता के सूत्र को लागू करते हैं। कम से कम खनिज, हवा, पानी, ऊर्जा, वनस्पतियाँ उपभोग में ली जाएँ। जिस आचरण से किसी जीव का प्राणहरण हो, उससे बचा जाये। धर्म ने संसार के स्वरूप का विवेचन विभिन्न द्रव्यों और पदार्थों के माध्यम से किया है। वह केवल आत्मा और परमात्मा के स्वरूप पर ही विचार नहीं करता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136