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१२२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक ४-६/अप्रैल-जून २००३
अनुपलब्ध रही। आचार्य विजयशीलचन्द्र सूरि जी म० सा० ने उक्त कृति को न केवल मूल रूप में विद्वद्जगत् के समक्ष उपस्थित किया बल्कि उसका गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित कर साहित्य जगत् की महती सेवा की। अच्छे कागज पर सुस्पष्ट मुद्रण और पक्की बाइंडिंग के साथ अत्यन्त अल्प मूल्य में प्रस्तुत कर प्रकाशक संस्था ने सराहनीय कार्य किया है। यह पुस्तक सभी पुस्तकालयों के लिये संग्रहणीय और गुजराती भाषा-भाषी प्रत्येक नागरिक के लिये अनिवार्य रूप से पठनीय और मननीय है। इस महत्त्वपूर्ण कृति का हिन्दी अनुवाद होना भी आवश्यक है ताकि हिन्दीभाषीजन भी इससे लाभान्वित हो सकें।
सुरसुन्दरीचरियं - रचनाकार - आचार्य धनेश्वरसूरि : सम्पादक - मुनि राज विजय जी म.सा०; प्रथम संस्करण वि०सं० १९७२/ई० सन् १९१६, पुनर्मुद्रण वि०सं० २०५९/ई० सन् २००२; प्रकाशक - प्रवचन प्रकाशन C/o श्री भूपेश भायाणी, ४८८, रविवार पेठ, पूना ४११००२; आकार - डिमाई, पृष्ठ ४६+८+२८६; मूल्य - ८०/- रुपये मात्र।
जैन परम्परा के अन्तर्गत स्त्रीपात्र प्रधान रचनाओं में चन्द्रकुलीन आचार्य धनेश्वरसूरि द्वारा रचित उक्त कृति का विशिष्ट स्थान है। प्राकृत भाषा में रचित यह रचना १६ परिच्छेदों में विभक्त है। प्रत्येक परिच्छेद में २५० गाथायें हैं।
पूर्व में यह कृति वि०सं० १९७२ में मुनि राजविजय जी द्वारा सुसंपादित होकर विविध साहित्य शास्त्रमाला, वाराणसी से प्रकाशित हुई थी। लगभग इसी समय जैनधर्म प्रचारक सभा, भावनगर से इसका गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। ये संस्करण लम्बे समय से अनुपलब्ध रहे। प्रवचन प्रकाशन, पूना द्वारा उक्त ग्रन्थ का पुनर्मुद्रण कर एक महान् कार्य किया गया है। इस संस्था द्वारा पूर्व प्रकाशित
और वर्तमान में अनुपलब्ध मौलिक ग्रन्थों के प्रकाशन और लागत मूल्य पर उनके वितरण की जो व्यवस्था की गयी है वह स्तुत्य है। हमें विश्वास है कि प्रकाशक संस्था द्वारा भविष्य में भी इसी प्रकार के अन्य दुर्लभ ग्रन्थ प्रकाशित और अल्प मूल्य में उपलब्ध होते रहेंगे।
भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय : मध्य प्रदेश - (१३वीं शती तक) - लेखक-सम्पादक - डॉ० कस्तूरचन्द्र जैन 'सुमन', आकार डिमाई, पृष्ठ - २४+३१५+२२ चित्र; प्रकाशक - श्री दिगम्बर जैन साहित्य संस्कृति संरक्षण समिति, डी-३०२, विवेक विहार, दिल्ली ११००९५, पक्की जिल्द, मूल्य १२०/- रुपये मात्र।
भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में अभिलेखीय साक्ष्यों की प्रामाणिकता निर्विवाद है। जैन परम्परा के इतिहास के संदर्भ में भी ठीक यही बात कही जा
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