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स्थितियों में आए बदलाव से मनुष्य की सोच तो बदली है, पर आचरण नहीं बदला है। जब तक उसकी आर्थिक दृष्टि स्वस्थ व संतुलित नहीं होगी, पर्यावरण संतुलित नहीं हो सकता।
जहाँ संयम-संतुलन नहीं, वहीं पर्यावरण की समस्या है, प्रदूषण है, हिंसा है, मोहातिरेक है, मूर्छा है, परिग्रह है, द्वेष और घृणा है। वनस्पति, पेड़-पौधे, नदी, पशु-पक्षी सभी के जीवन में संयम-सुरक्षा की भावना हो। सह-अस्तित्व पर विश्वास हो तो न हिंसा होगी, न घृणा, न प्रदूषण। लोभ-मोह हमारे पर्यावरण को दूषित करने के मूल कारण हैं और यहीं हिंसा की वृत्ति भी है। आज हम अपरिग्रह और अहिंसा का व्रत लेकर आगे बढ़ें तो इस धरती को अवश्य प्रदूषण-मुक्त किया जा सकता है और समाज सुखी और समृद्ध हो सकता है।
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