Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 43
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ३७ एवं जलीय जीवों, एक पक्षी व ३ वनस्पति पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त चंन्द्रप्रभ का लांछन चन्द्रमा शीतल पर्यावरण के आधार पर मानव स्वभाव के तमोगुण का ह्रास करने का संदेश देता है। सुपार्श्व का स्वस्तिक चिन्ह विश्व की मांगलिक प्रवृत्ति को दर्शाकर मानसिक प्रदूषण को दूर करने का पाठ पढ़ाता है। १५वें तीर्थंकर धर्मनाथ का चिन्ह मंगल वज्र विश्व के पर्यावरण पर होने वाले संभावित वज्रपात से सुरक्षा का शस्त्र प्रदान करता है जिसका आध्यात्मिक आधार अहिंसा ही है। मल्लिनाथ का चिन्ह मंगलकलश, सुख-शांति एवं मंगलमय जीवन का द्योतक है। २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चिन्ह शंख तो अहिंसा का निरन्तर शंखनाद कर पर्यावरण सुरक्षा हेतु सम्पूर्ण मानव जाति का आह्वान करता आ रहा है। यही नहीं इन सभी तीर्थंकरों के यक्ष व यक्षिणियों के वाहन भी पर्यावरणीय घटक रहे हैं। ४८ रक्षकों में से ४४ स्थलीय व जलीय पशुओं व वनस्पति पर ही आधारित हैं। उक्त दोनों उदाहरण तीर्थंकरों की पर्यावरणीय ओतप्रोतमूलक दर्शन का बोध कराते हैं। वनस्पति एवं व्यावहारिक जीवन का अटूट सम्बन्ध है। यों, वनस्पति की सुरक्षा की बात न्यूनाधिक रूप से सभी धर्म करते हैं, पर जैन धर्म में तीर्थंकरों के सम्पूर्ण चिन्तन की धुरी वनस्पति संरक्षण है। भरतबाहुबलीमहाकाव्य में वृक्ष वर्णनों के साथ ही वन-संरक्षण का बृहत् वर्णन मिलता है। आदिपुराण में वन संरक्षण एवं सघन वनों का जो वर्णन है, उसे अरण्य संस्कृति कहा जाता है। इस संस्कृति के अनुसार सम्पूर्ण विश्व एक वृक्ष है जिसे 'लोक' कहा गया है। लोक के एक भाग पर मानव रहता है जो जम्बद्वीप के नाम से जाना जाता है। यों, मानव प्रारम्भ से कल्पतरु पर निर्भर रहता आया है। तीर्थकरों के अनुसार एकेन्द्रिय होने के कारण वनस्पति जीवन से परिपूर्ण है। उनके अनुसार किसी भी जीव और वनस्पति को नष्ट नहीं करना चाहिए। आचारांग में कहा भी है- सव्वे पाणा सव्वे भूया, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा अर्थात् कोई भी प्राणी, कोई भी जीव-जन्तु, कोई भी प्राणवान नहीं मारा जाना चाहिए, क्योंकि इनको नष्ट करने से सभी कष्टों में वृद्धि होगी। आचारांग में ही आगे कहा है ___ पाणा पाणे किलेसंति....., बहुदुक्खा हु जंतवो। जीव, जीव को सताता है। वास्तव में इसी कारण हर जीव बहुत कष्ट में है। महावीर ने अपने विहार के समय हर प्राणी का पूरा-पूरा ध्यान रखा जैसा कि पुढविं च आउकायं च तेउकायं च वायुकायं च। पणगाई बीयहरियाई तसकायं च सव्वसो णच्चा अर्थात् पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, शैवाल, बीज और हरी वनस्पति तथा त्रस काय जीव हैं, ऐसा जानकर वे विहार करते थे। वनस्पति को प्रत्येक तीर्थंकर ने जीव माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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