Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 82
________________ ७६ व्यसन वह वृत्ति है जो मानव को निरन्तर उत्तम से जघन्य की ओर ले जाती है। मानव अपने नैतिक लक्ष्य को भूल कर अनैतिक व्यवहारों से दानवता की ओर बढ़ रहा है जिससे वह विभिन्न व्यसनों का दास बनकर वैचित्र्यपूर्ण, शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक दुःखों को आमंत्रित करता है। महान् विवेकी, तर्कशील सुखेच्छु मानव धन खर्च करके विभिन्न प्रकार की आपत्तियों को खरीदता है। मद्यमांस आदि तामसिक आहार से मानव वैसे ही भावों से आकान्त हो जाता है और वह मानव न होकर दानव हो जाता है। इन व्यसनों के कारण आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार का पर्यावरण प्रदूषित होता है। प्राणियों को कष्ट देना हिंसा है। हिंसा करना ही प्रदूषण है। प्राणियों को मौत के मुँह में डालना निश्चित ही बड़ा भारी पाप है। मानव धन की प्राप्ति के लिए चौर्य, कपट, लोभ आदि पापों का सेवन करता है। धनार्जन हेतु स्वार्थी बन कर लोग जंगल काटते, आग लगाते, जंगली जानवरों का शिकार आदि पाप कर्म करते हैं। इनसे वन्य जीवन का संतुलन बिगड़ता है और पारिस्थितिकी संबंधी अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं। पाप वह है जिससे लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कष्ट हो और उनके जीवन में जिससे बाधा उत्पन्न हो। ध्वनि, वायु, जल आदि का प्रदूषण ये सब ऐसे ही पाप कर्म हैं जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मनुष्यों एवं जीव-जन्तुओं को भारी कष्ट होता है। अत: ये भी पाप हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ इन काषायिक भावों के आक्रान्त होने से मानव के अन्दर हिंसा, छल-कपट और संग्रह की आसुरी प्रवृत्ति दिनोदिन बढ़ती जा रही है। लोभ व्यक्ति की तृष्णा को आसमान छूने के लिए उकसा रहा है। भोगवादी संस्कृति के प्रभाव से वह जितनी वस्तुएं उपयोग में लाता है उसका सहस्र गुणा वस्तुओं का संग्रह करने में वह जुटा हुआ है। __ जैनधर्म के अनुसार अनुरन्जित योगों की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है। यह छः प्रकार की होती है - कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म और शुक्ल। कृष्ण लेश्या वाले व्यक्तियों का मानस अत्यन्त प्रदूषित होता है। उसके आगे-आगे की लेश्या वाले व्यक्तियों का मानसिक प्रदूषण कम होता जाता है और अंतिम शुक्ल लेश्या वाला व्यक्ति कोमल परिणाम वाला होता है। वस्तुत: आज पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी का असंतुलन विश्वव्यापी समस्या का रूप ले चुका है। इसलिए पर्यावरण की रक्षा करना राष्ट्रीय और मानवीय कर्तव्य है। इसके लिए सामूहिक, समन्वित और शासकीय प्रयासों के साथ-साथ जन-जन को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। जैन धर्म के श्रावकाचार में पर्यावरण संरक्षण किस प्रकार सहयोगी है उसका वर्णन इस प्रकार है। सर्वप्रथम श्रावकाचार को परिभाषित करते हैं कि - सप्त व्यसन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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