Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 89
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : 83 सर्वज्ञ को अनंतचक्षु कहा गया है। उनकी निर्मल ज्ञान-चेतना में अनन्त धर्मात्मक वस्तु समग्रता से प्रतिबिम्बित होती है। इसलिए वे सत्य-द्रष्टा और सत्य के प्रतिपादक होते हैं। वे जन-कल्याण हेतु प्रवचन करते हैं। उनके प्रवचन का उद्देश्य होता है - 1. प्रकाश का अवतरण 2. बन्धन-मुक्ति 3. आनन्द की उपलब्धि जैन-धर्म बहुत प्राचीन है, वह वेदों की तरह अपौरुषेय या अव्याकृत नहीं है। वह वीतराग-सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा प्रणीत है। इस युग के आदि धर्म-प्रवर्तक थे - भगवान् श्री ऋषभदेव। ऋषभदेव का काल-निर्णय आज की संख्या में नहीं किया जा सकता। वे बहुत प्राचीन हैं। वे युग-प्रवर्तक थे, मानवीय सभ्यता के अन्वेषक थे। वे इस युग के प्रथम राजा बने। लम्बे समय तक राज्य तंत्र का संचालन कर उन्होंने राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं का सूत्रपात किया। वे मुनि बने, दीर्घकालीन साधना की, घोर तप किया और कैवल्य को प्राप्त हुए। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बने। धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। धर्म-तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर कहलाए। ऋषभ इस युग के प्रथम तीर्थंकर थे और भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थंकर। जैन-धर्म के बाईस तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में हए। पार्श्व और महावीर ऐतिहासिक पुरुष हैं। तीर्थंकर वह होता है जो स्वयं प्रकाशित होकर प्रकाश पथ का निर्माण करता है। वह स्वतंत्र चेतना का स्वामी होता है। अत: किसी दूसरे का अनुगमन या अनुकरण नहीं करता। इसीलिए प्रत्येक तीर्थंकर अपने युग के आदिकर्ता होते हैं। युग-प्रणेता होते हैं। अत: देश और काल की सीमाओं से परे रहकर यह कहा जा सकता है कि जैन-धर्म के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं। वे जिन, वीतराग, अर्हत्, सर्वज्ञ आदि रूपों में वंदितअभिनंदित होते हैं। भगवान् महावीर इस युग के अंतिम तीर्थंकर थे, अत: वर्तमान जैन परम्परा का भगवान् महावीर से गहरा सम्बन्ध है। जैन धर्म के विभिन्न गुणों के कारण उसके विभिन्न नाम रहे हैं। इसके प्राचीन नाम हैं : निर्ग्रन्थ प्रवचन, अर्हत् धर्म, समता धर्म और श्रमण धर्म। अर्वाचीन नाम है - जिनशासन या जैनधर्म। इनमें भी बहुप्रचलित और बहुपरिचित नाम जैनधर्म ही है। यह नाम भगवान् महावीर के बाद ही प्रचलित हुआ ऐसा उत्तरवर्ती साहित्य के आधार पर सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136