________________ जैन धर्म और पर्यावरण सरंक्षण देवेन्द्र कुमार हिरण* धर्म आत्मा में जाने का प्रवेश-द्वार है। आत्मा का स्पर्श तब होता है, जब वीतराग-चेतना जागती है। राग-चेतना और द्वेष-चेतना की समाप्ति का क्षण ही वीतराग-चेतना के प्रस्फुटन का क्षण है। जैन-धर्म की सारी साधना वीतराग की साधना है। "जैन” शब्द का मूल “जिन' है। "जिन'' का अर्थ है जीतने वाला या कषायों पर विजय पाने वाला। अपनी कषायों पर विजय पाने वाला अपने आप पर विजय पा लेता है। अत: अपने आपको जीतने वालों का धर्म-जैन धर्म है। जैन-धर्म के प्रणेता जिन कहलाते हैं। जिन होते हैं - आत्म-विजेता, राग-विजेता, द्वेष-विजेता और मोह-विजेता। जैन परम्परा में “जिन' शब्द की अतिरिक्त प्रतिष्ठा है। “जिन' शब्द को दो अर्थों का संवाहक माना जा सकता हैजिन-ज्ञानी और जिन-विजेता। आवश्यक में ज्ञाता और ज्ञापक रूप में - अर्हतों की स्तुति की गई है। ___ "जिन" का एक अर्थ है - प्रत्यक्षज्ञानी, अतीन्द्रियज्ञानी। ये तीन प्रकार के होते हैं- 1. अवधि ज्ञान जिन, 2. मन: पर्यवज्ञान जिन और 3. केवल ज्ञान जिन। इससे भी “जिन' का अर्थ ज्ञाता ही सिद्ध होता है। जैन-धर्म के प्रणेता सर्वज्ञ और वीतराग होते हैं। वे प्रकाश, शक्ति और आनन्द के अक्षय स्रोत होते हैं। उनकी आन्तरिक शक्तियां - अर्हताएं समग्रता से उद्भाषित हो जाती हैं, इसलिए वे अर्हत् कहलाते हैं। चैतन्य की अखंड लौ को आवृत करने वाले तत्त्व हैं - मूर्छा और अज्ञान। जिसकी आन्तरिक मूर्छा का वलय टूट जाता है, उसके ज्ञान का आवरण भी क्षीण हो जाता है। ज्ञान की अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित होते ही व्यक्ति सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। वह सत्य को उसकी परिपूर्णता में जानने-देखने लगता है। “जिन'' सर्वज्ञ होते हैं, केवली होते हैं। वे वस्तु-जगत् के प्रति प्रियता-अप्रियता की संवेदना रहित, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा भाव में अवस्थित रहते हैं। *ग्रूप बी; पत्र व्यवहार का पता- देवरमण, गंगापुर, जिला-भीलवाड़ा, (राज०) पिन-३११८१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org