Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ संयम और पर्यावरण संरक्षण श्रमण भगवान् महावीर ने दशवैकालिकसूत्र के पहले अध्याय में कहा है कि - धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। अहिंसा, संयम और तप उत्कृष्ट धर्म है। जैन धर्म में संयम को सर्वश्रेष्ठ तप कहा गया है। यदि सही दृष्टिकोण से देखा जाये तो असंयम व अनियन्त्रित भोगवाद ही पर्यावरण के संकट के लिये जिम्मेदार हैं। जब तक हम जैनाचार से परिपूरित संयम आधारित जीवन नहीं जी पाते हैं, पर्यावरण के लिये संकट बना ही रहेगा। यह संयमित आचरण वस्तुओं व सुविधाओं को अपनाने में भी रहना चाहिये। क्षमा, सहृदयता, मानवता और पर्यावरण संरक्षण जैनाचार में क्षमा को वीरों का भूषण कहा गया है, जब यही क्षमा परिवार में, समाज में, विश्व में फैल जाती है तो विश्व शांति का मूल मंत्र मिल जाता है और जब विश्व में घृणा, असुरक्षा, द्वेष व भय का स्थान क्षमा, सहृदयता और मानवता ले लेती है तो अपने आप ही हथियारों की दौड़, अणु-परमाणु बमों का विस्तार, युद्ध, आंतरिक कलह आदि रुक जाते हैं और फिर पर्यावरण संरक्षण स्वत: हो जाता है। हमें इस तथ्य को समझना है कि - क्षमा ही विश्व मैत्री का मूल मंत्र और पर्यावरण संरक्षण का अस्त्र है। वस्तुत जैन धर्म पर व्यापक दृष्टिकोण से विचार करने पर हम पाते हैं कि जैनों का पूरा आचरण ही पर्यावरण को संकटों से बचाने वाला है। प्रमुख जीवनचर्या और पर्यावरण के कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं :१) जल को बहुत सीमित मात्रा में उपयोग करने के निर्देश हैं, पानी की एक बूंद में भी असंख्यात जीव हैं, सन्त-सतियों के लिये तो सचित्त जल का त्याग है ही, गृहस्थ को भी बिना छाने पानी का उपयोग नहीं करना है। पानी का उपयोग घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिये। अत: जैनों की इस कार्यशैली से पता लगता है कि पर्यावरण संरक्षण से उनका निकट का संबंध है। । जैनियों के लिये व्यवसाय की शुद्धता और पवित्रता अनिवार्य है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उपासकदशांगसूत्र और आवश्यकसूत्र में भी जैन गृहस्थों के लिये पन्द्रह कर्मादानों के त्याग का निर्देश है। जिस व्यवसाय में अधिक धूआँ हो जैसे - वनों को काटना, आग लगाना, इनसे वनस्पति व अन्य जीवों की हिंसा होती है तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है। जैन धर्म में हरित वनस्पति को तोड़ने, काटने निषेध है, साधु को तो उसके स्पर्श तक का निषेध है। जैनों को कन्दमूल खाने की मनाही है, इसका अभिप्राय यह है कि अगर हम जड़ों का ही भक्षण करेंगे तो पौधों का अस्तित्व नष्ट हो जावेगा और पर्यावरण प्रदूषित होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136