Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 98
________________ ९२ बढ़ा रही है। इस प्रकार यदि व्यक्ति अपनी तृष्णा का दमन करता है तो वह इस ओर सार्थक प्रयास करता है। इस प्रकार यदि हम सांस्कृतिक पर्यावरण की बात करते हैं तो इसमें समाज का वातावरण भी सम्मिलित होता है। अतः हमें समाज व संस्कृति के उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए क्योंकि " व्यक्ति बनेगा स्वस्थ तभी तो, स्वस्थ समाज बनेगा। सघन स्वार्थ का मूर्च्छा का, उपचार “जिन धर्म" देगा।" प्राचीन ज्ञानियों ने जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है। इन अवस्थाओं से आश्रमों का उद्गम हुआ और ये आश्रम हैं - ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ तथा संन्यासाश्रम। इन्हीं आश्रमों में प्रमुख आश्रम बताया है ब्रह्मचर्याश्रम को। मानव की आयु को शतायु माना गया है और २५ वर्ष की आयु प्रत्येक आश्रम के लिए निश्चित की गई है। २५ वर्ष तक प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखे। जैन धर्म में भी ब्रह्मचर्य को महत्व दिया गया है। ब्रह्मचर्य की शक्ति महाशक्ति है। ब्रह्मचर्य की शक्ति के कारण ही प्रभु नेमिनाथ के आगे श्रीकृष्ण नतमस्तक हुए थे। सभी श्रमणी व श्रमणी तथा श्रावक व श्राविकाओं के लिए ब्रह्मचर्य का महत्व है। जैन धर्म में श्रमण व श्रमणी के लिए "ब्रह्मचर्य" चौथा महाव्रत है। भगवान् महावीर ने कहा है. कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पर विसीयंतो, संकप्पस्स वंस गओ ।।" दशवैकालिक सूत्र अध्ययन २. गाथा १. अर्थात् कामरूपी शत्रु का निवारण करके ही श्रमण धर्म का पालन किया जा सकता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो दुःख ही पाता है। - अंतिम पर्यावरण का भाग है आत्मिक पर्यावरण। आत्मा एक दर्पण के समान है यदि इसमें मोह, माया, काम, क्रोध, लोभ की धूल लग जाए तो यह न तो आत्म मंथन कर सकती है और न ही आत्मविश्लेषण। आत्मा अमर अजर व शाश्वत है। गीता में भी कहा है। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ अध्याय २, श्लोक २३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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