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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ९५
सबकुछ आ जाता है, जो हमारे पास मौजूद है। जैसे - पृथ्वी, जल, आकाश, पेड़पौधे, पशु-पक्षी, सूक्ष्म व बादर जीव तथा भू-गर्भ के खनिज। यह पर्यावरण दो प्रकार का है, नैसर्गिक व कृत्रिम। हमारा पर्यावरण हमारे जीवन का मूल तत्व है। मनुष्य ने जब जन्म लिया, तब चारों ओर स्वच्छ वायु, उज्जवल प्रकाश, निर्मल जल व प्रकृति की सुन्दर हरीतिमा के दर्शन किये, किन्तु धीरे-धीरे मानव के मन में प्रकृति पर शासन करने की लालसा जागी, जिसके कारण प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया व पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पत्र हो गई है।
वैज्ञानिकों के अनुसार पर्यावरण के चार प्रकार हैं :
भूमण्डलीय पर्यावरण, जलमण्डलीय पर्यावरण, वायुमण्डलीय पर्यावरण और जीवमण्डलीय पर्यावरण।
आज हम दृष्टिपात करें तो देखेंगे कि सर्वत्र पर्यावरण में प्रदूषण फैल गया है, आज प्रकृति का कोई भी कोना इसके प्रहार से बच नहीं पाया है और इसका सम्पूर्ण उत्तरदयित्व मानव का है।
__ आज के इस प्रदूषित होते पर्यावरण की रक्षा का प्रश्न मानव समाज की ज्वलन्त समस्या है। जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त विज्ञान के आधार पर निर्मित हैं। आज सम्पूर्ण मानव जाति मात्र जैन धर्म पर चलकर ही पर्यावरण की रक्षा कर सकती है। इस संबंध में निम्न बिन्दुओं को आधार मानकर अपनी बात को स्पष्ट किया जा सकता है। अहिंसा व पर्यावरण संरक्षण
जैन धर्म में अहिंसा को बहुत महत्व दिया गया है, अहिंसा परमोधर्मः। सभी को अहिंसामय जीवन जीकर पर्यावरण की शुद्धता को बनाये रखने में सहयोग देना है। आचारांगसूत्र में भी वनस्पति को सजीव एवं सुख-दुःख का अनुभव करने वाला बताया गया है। धरा सौंपती हमें हर एक पल स्वर्गोपम उपहार
पंछी और पशु इस धरती के अमूल्य शृंगार। . करुणनिधि ने हमें बताया धर्म अहिंसा
इसे निभायें निर्भय होकर पालें जैनाचार। अत: आत्मवत् सर्वभूतेषु मानकर अहिंसारूपी अस्त्र से पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं। महावीर ने यही कहा है कि प्रत्येक प्राणी षटकायिक जीवों की रक्षा करे। श्रावक-श्राविकायें भी प्रथम अणुव्रत में संकल्पी हिंसा का परित्याग करते हैं। अहिंसा जैन धर्म की आत्मा है और यही है पर्यावरण की रक्षा का एकमेव उपाय।
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