________________ 84 जिन प्रवचन ही जैन-धर्म का मूल आधार है। जिन वाणी पर आस्था रखने वाला तथा उन शिक्षा - पदों का आचरण करने वाला समाज जैन समाज कहलाता है। जैसे बुद्ध द्वारा प्रवर्तित धर्म बौद्ध धर्म, ईसा द्वारा उपदिष्ट धर्म ईसाई धर्म कहलाता है, शिव और विष्णु को इष्ट मानकर चलने वाले शैव और वैष्णव कहलाते हैं, वैसे ही अर्हत् या जिन को इष्ट मानकर चलने वाले जैन कहलाते हैं। यहां एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जैसे बुद्ध, ईसा, शिव या विष्णु व्यक्तित्व-वाचक नाम हैं, वैसे “जिन" या "अर्हत्' शब्द व्यक्ति-विशेष का वाचक नहीं हैं। जैन धर्म में व्यक्ति-पूजा का कोई स्थान नहीं है। वह व्यक्ति की अर्हताओं को, योग्यताओं को मान्य कर, उसकी पूजा में विश्वास रखता है। ___ जिसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र और शक्ति को आवरित करने वाले तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, चैतन्य का परम स्वरूप प्रकट हो जाता है, वह कोई भी व्यक्ति अर्हत् की श्रेणी में आ सकता है। जैन धर्म केवल संप्रदाय और परम्परा ही नहीं, बल्कि अपने आपको जीतने और जानने वालों का धर्म है। इस का प्रमाण है - जैन धर्म का नमस्कार महामंत्र और चतुःशरण सूत्र। णमो अरिहंताणं - मैं अर्हतों को नमस्कार करता हूँ। णमो सिद्धाणं - मैं सिद्धों को नमस्कार करता हूँ। णमो आयरियाणं - मैं आचार्यों को नमस्कार करता हूँ। णमो उवज्झायाणं - मैं उपाध्यायों को नमस्कार करता हूँ। णमो लोए सव्व साहूणं - मैं लोक के सब संतों को नमस्कार करता हूँ। इस नमस्कार महामंत्र में किसी व्यक्ति को नमस्कार नहीं किया गया। अर्हत् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - ये साधना की दिशा में प्रस्थित साधकों की उत्तरोत्तर विकसित अवस्थाएं अथवा सिद्धि-प्राप्त आत्माओं की भूमिकाएं हैं। इन पर जो भी आरोहण करता है, वह वंदनीय हो जाता है, नमस्कार महामंत्र के माध्यम से हम अर्हता, सिद्धता, आचार-सम्पन्नता, ज्ञान-सम्पन्नता और साधुता की वंदना करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि जैन-धर्म व्यापक और उदार दृष्टि वाला धर्म है। वह जाति, वर्ण, वर्ग आदि की संकीर्णताओं से सर्वथा मुक्त सार्वभौम धर्म है। यद्यपि जैन-धर्म वर्तमान में मुख्यत: वैश्य वर्ग से जुड़ा हुआ है, पर प्राचीन काल में सभी वर्गों और जातियों के लोग जैन-धर्म के अनुयायी थे। भगवान् महावीर क्षत्रिय थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org