Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ ७४ रहता है। जैनधर्म में मानव कल्याण की भावना प्रतिबिम्बित है। इसमें विनय, व्यवहारकुशलता, शुद्धि-अशुद्धि में शक्यानुसार विवेक, दानवृत्ति, सहयोग, सेवा, परोपकार, करुणा, दया, शाकाहार आदि गुण हैं जो सामाजिक पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। जैनाचार्यों का राजनैतिक चिन्तन सदैव नैतिक मूल्यपरक और दूसरों को प्रेरणा प्रदान करने के साथ-साथ स्वयं अनुशासन में बद्ध होने का रहा है और इन्होंने इस लोक की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक बातों पर प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिकता की तरंग में इस लोक की प्रत्यक्ष शारीरिक आवश्यकताओं से संबंधित विषयों पर लेखनी चलायी है। ___ जैनाचार्यों ने आर्थिक पर्यावरण के अर्न्तगत आर्थिक गतिविधियों को परिलक्षित कर तद्नुरूप धनोपार्जन, व्यवसाय आदि आर्थिक क्रियाएं सम्पन्न करने के लिए प्रेरित किया है ताकि आर्थिक पर्यावरण सुरक्षित रह सके। __ जैन साहित्य में मानसिक पर्यावरण के कई स्थल दृष्टिगोचर होते हैं। इसमें बताए हुए व्यावहारिक जीवन शैली को यदि हम अपने जीवन में अपनायें तो मानसिक पर्यावरण की सुरक्षा स्वत: ही हो जाएगी। जैन साहित्य में पर्यावरण की उपयोगिता को प्रस्तुत करते हुए धर्म को मनुष्य के लौकिक तथा पारलौकिक सुख की सफलता का कारण बताया गया है। धार्मिक पर्यावरण आत्मिक उन्नति का मार्ग है। यह मानवीय व्यवहार का उचित नियमन एवं नियंत्रण करता है। धर्म ही मनुष्य के सुख का हेतु है। जो गृहस्थ धर्म नहीं करते वे वृद्धवस्था में उसी प्रकार दुःख प्राप्त करते हैं जैसे कीचड़ में फँसा हुआ बैल। अत: धार्मिक पर्यावरण मानवता का पाठ पढ़ाकर समतामूलक अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है और प्राणीमात्र को सुरक्षा प्रदान करने का दृढ़ संकल्प देता है। सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक प्रदूषण को दूर करने की दिशा में धार्मिक पर्यावरण की विशुद्धता का महनीय योगदान है। मानव प्रमादी और परावलम्बी बन रहा है। वह कृत्रिमता को महत्त्व देता है, फलस्वरूप पर्यावरण का असंतुलित होना स्वाभाविक है। आज हवा, पानी, भोजन आदि सभी में विकृति है। उसे श्वांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न ही पीने के लिये शुद्ध पानी, न ही खाने के लिए शुद्ध भोजन। क्योंकि वाहनों के प्रयोग, कीटनाशक दवाओं, कृत्रिम खाद का प्रयोग आदि अनेक कारणों से वायु, जल व अन्न प्रदूषित हो गया है। प्रदूषण का अर्थ है किसी वस्तु में विकार आ जाना। असली में नकली वस्तु मिल जाना अथवा शुद्ध वस्तु का अशुद्ध हो जाना। आज वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण मानव की स्वार्थवृत्ति, लुप्त हुई संवेदनशीलता और भोगवादी प्रवृत्ति आदि के कारण फैल रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136