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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
मनोरमा जैन*
परि + आवरण = पर्यावरण। चारों ओर प्रकृति का ढका हुआ आवरण ही पर्यावरण है। पर्यावरण में जीव सृष्टि एवं भूगर्भ और आसपास की परिस्थितियों का समावेश होता है। पर्यावरण में जैविक और अजैविक घटक होते हैं और सभी घटकों की निश्चित भूमिका होती है। इन घटकों में सामन्जस्य रहने पर पर्यावरण संतुलित रहता है। पर्यावरण ही जीवन और जगत् को पोषण देता है। जैन धर्म में पर्यावरण के मूल घटक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के दुरुपयोग, अति उपयोग या विनाश से संबधित सामाजिक एवं धार्मिक निषेध स्थापित किए गए हैं जिससे प्रकृति प्रदत्त इन उपहारों का आदर हो सके और पर्यावरण भी प्रदूषित न हो।
पर्यावरण को दो भागों में विभाजित किया गया है - बाह्य एवं आन्तरिक। १. बाह्य पर्यावरण में भौतिक पर्यावरण, पारिवारिक पर्यावरण, सामाजिक
पर्यावरण, राजनैतिक पर्यावरण और आर्थिक पर्यावरण रखे जा सकते हैं। २. आन्तरिक पर्यावरण में मानसिक पर्यावरण और धार्मिक पर्यावरण आते हैं। ___भौतिक पर्यावरण में पर्वत, नदी, सरोवर, वन, समुद्र आदि हैं। प्राचीन काल में पर्यावरण पूर्ण रूप से संतुलित था। वर्तमान में अपनी भोगलिप्सा के कारण व्यक्ति को प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ के कारण कदम-कदम पर प्राकृतिक विपदाएं झेलनी पड़ रही हैं। आज यदि जैन धर्मानुसार मानव प्रकृतिप्रदत्त वस्तुओं का दुरुपयोग बंद करे तो निश्चित रूप से वर्तमान भौतिक पर्यावरण सुरक्षित हो सकता है।
जैन साहित्य में पारिवारिक वातावरण के अंर्तगत पारिवारिक संबंधों के विषय में जानकारी मिलती है। यहां पति-पत्नी का मधुर संबंध, सन्तान के लिए माता-पिता का स्नेह, स्वामी का सेवक के प्रति नम्रता का व्यवहार परिलक्षित होता है। पति-पत्नी, माता-पिता आदि के मधुर संबंध से लड़ाई झगड़े समाप्त हो जाते हैं। इससे पारिवारिक प्रदूषण और सामाजिक प्रदूषण समाप्त हो जाते हैं। जब घर में शान्ति होगी तो समाज में भी शान्ति रहेगी। समाज में शान्ति होने से देश व राष्ट्र में भी शान्ति का वातावरण रहता है। पारिवारिक वातावरण से सामाजिक और मानसिक पर्यावरण सुरक्षित रहता है और इससे आध्यात्मिक पर्यावरण भी विशुद्ध *ग्रूप बी; पत्र व्यवहार का पता - ५/७७९, विरामखंड, लखनऊ (उ०प्र०)
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