Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 84
________________ 78 सहयोग के बिना जीवन का प्रवाह गतिहीन सा हो जाता है। प्रगति सहमूलक होती है संघर्षमूलक नहीं। व्यक्ति के बीच संघर्ष का वातावरण प्रगति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। जैन धर्म में व्यक्ति को संयम की बात सिखलायी गई है। संयम वास्तव में विचार परिवर्तन की ही दिशा नहीं अपितु विभिन्न ग्रन्थियों पर ध्यान केन्द्रित कर उसके स्त्राव द्वारा हृदय परिवर्तन की एक दशा भी है। इस तरह वर्तमान युग में जो अशान्ति के कारण हैं उनके लिए “संयम खलु जीवानाम्' का उद्घोष ही शान्ति का एक महत्त्वपूर्ण सन्देश है। सदाचारी गृहस्थ का सामाजिक जीवन मर्यादित होता है। उसमें संचय की वृत्ति न बढ़े, इसके लिए उसे दिग्व्रत, देशव्रत एवं अनर्थदण्ड व्रत के पालन का निर्देश है। वह दैनिक जीवन में धार्मिक आचरण से विमुख न हो तथा उसमें दान की वृत्ति बनी रहे इसके लिए उसे चार शिक्षाव्रतों - सामायिक, प्रोषधोपवास, भोग-उपभोग परिमाण व्रत और अतिथि संविभाग के पालन का निर्देश है। जब श्रावक इन बारह व्रतों का पालन करने लगता है तब उसके जीवन की धार्मिक यात्रा आगे बढ़ती है। वह अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार जीवन में संयम पालने की ओर कदम बढ़ाता है। ___घातक वातावरण के निर्माण में सामाजिक विषमता प्रमुख है। जैनधर्म में इस तथ्य की मीमांसा कर अपरिग्रह का उपदेश दिया गया है जिससे सामाजिक प्रदूषण से रक्षा हो, सके। परिग्रह की वैचारिक दृष्टि औद्योगिक विकास को गति प्रदान करती है। वर्तमान में असंतोष एवं भविष्य के प्रति निराशा ने व्यक्ति को अधिक परिग्रही बना दिया है। विश्व की प्राकृतिक सम्पदा मर्यादित उपयोग से ही सुरक्षित रह सकती है। उपयोग में नियमन/संरक्षण सिद्धान्त कार्य करता है जबकि उपभोग अन्तहीन और अनन्त होता है। श्रावकाचार व्यक्ति को आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर ले जाने के लिए पहले सामाजिक कर्तव्य की ओर खींचता है और व्यक्ति सामाजिक कर्तव्य को पूरा करता है। वह आत्मकल्याण तो करेगा ही साथ ही समाज का भी अधिकतम उपकार करता है। मानवता ही पर्यावरण को सुरक्षित करती है) जैन श्रमणाचार भी पर्यावरण संरक्षण में अत्यधिक सहायक है। मुनि का आचार ही श्रमणाचार है। वह निवृत्ति मूलक होता है। उसकी सभी क्रियाएं आत्मा के साक्षात्कार में सहायक होती हैं। पांच महाव्रत, चार शिक्षाव्रत, पांच समिति, छह आवश्यक आदि उसकी साधना में प्रमुख हैं। बारह व्रतों के पालन की साधना करता हुआ मुनि ध्यान की उत्कृष्ट अवस्था में पहुचता है। वहां वह उस परम ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है जिससे वह परमात्मा की कोटि में आ सके। मनि जीवन की इसी कठोर साधना के कारण श्रमणाचार को प्राय: निवृत्तिमूलक एवं व्यक्तिवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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