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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
दीपिका गांधी*
पर्यावरण या समग्र प्रकृति एक-दूसरे का पर्याय है। केवल नदी, जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी और हवा ही पर्यावरण नहीं हैं। हमारे सामाजिक - आर्थिक सरोकार और हमारी सांस्कृतिक - राजनैतिक एवं समसामयिक परिस्थितियाँ भी पर्यावरण की ही फलक हैं।
श्रमण-परम्परा अहिंसक प्रयोगों के उदाहरणों से भरी पड़ी है। तीर्थंकरों ने पर्यावरण के संरक्षण से अपनी साधना प्रारम्भ की है। ऋषभदेव ने कृषि एवं वन सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिए लोगों को सही ढंग से जीने की कला सिखायी। नेमिनाथ ने पशु-पक्षियों के प्राणों के समक्ष मनुष्य की विलासिता को निरर्थक सिद्ध किया। पार्श्वनाथ ने धर्म और साधना के क्षेत्र में हिंसक अनुष्ठानों की अनुमति नहीं दी। अग्नि को व्यर्थ में जलाना और पानी को निरर्थक बहा देना भी हिंसा के सूक्ष्म द्वार हैं। षट्काय के जीवों की रक्षा में ही धर्म की घोषणा करके महावीर ने पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी एवं मानव इन सबको सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया है। तभी वे कह सके - _. “मित्ती मे सव्वभूयेसु, वेरं मज्झं ण केणइ'
मेरी सब प्राणियों से मित्रता है, मेरा किसी से बैर नहीं है। इस सूत्र को जीवन में उतारे बिना संयम नहीं हो सकता, धर्म की साधना नहीं हो सकती। पर्यावरण की सुरक्षा नहीं हो सकती।
जैन जीवन-शैली में पर्यावरण-सुरक्षा आरम्भ से ही ऐसी घुली-मिली रही है कि उसकी ओर अलग से विचार किए जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। आज जब गिरते जीवन मूल्यों के कारण वह जीवन शैली ही प्रदूषित हो गई है, पर्यावरण और उससे जुड़े प्रश्न अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
आचारांगसूत्र को पर्यावरण के दृष्टिकोण से देखें तो वहां इस विषय की सामग्री स्थान-स्थान पर बिखरी दिखाई देती है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पर्यावरण के सभी पहलुओं का महत्त्व समझ उसे जीवनोपयोगी बनाए *ग्रूप बी; पत्र व्यवहार का पता - श्री सुरेन्द्र कुमार गांधी, लखन कोठारी, दर्जी मोहल्ला, अजमेर (राज.)
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