Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ४५ स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण हैं। तीर्थंकरों के चिन्ह भी पर्यावरण से ही सम्बन्धित हैं। पद्मपुराण में भी वृक्षारोपण को प्रतिष्ठा का विषय कहा गया है-“प्रतिष्ठाते गमिष्यन्ति वृक्षाः समारोहिताः' इस प्रकार जैन धर्म का अनेक स्थलों पर वनस्पति जगत् तथा प्राणी जगत् से सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है। इतना ही नहीं बल्कि दैनिक जीवनोपयोगी कुछ जैन धार्मिक क्रियाएं इस प्रकार हैं कि जिनके द्वारा हम पर्यावरण को दूषित होने से बचा सकते हैं। यथा ___ अशुद्ध जल का सेवन एवं अनावश्यक जल का प्रवाह भी अनंत जलकायिक जीवों की हिंसा है। आज जल प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण दूषित पदार्थों को जल में प्रवाहित करना, स्थान-स्थान पर एकत्रित जल और दलदल आदि हैं। जैन शास्त्रों में जल छानकर एवं प्रासुक जल का सेवन प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य बताया गया है। जल शुद्धि एवं मितव्ययता से जल प्रदूषण से मुक्ति संभव है। पर्यावरण में प्रदूषण न आये वह संतुलित रहे इसलिये जैन धर्म में सप्त कुव्यसनों-जुआ, मांस, मदिरा, चोरी, वेश्यागमन, शिकार खेलना और परस्त्रीगमन वर्जित हैं। प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा हेत् संविधान में दया भाव को कर्तव्य बताया गया है जो नागरिक ही नहीं अपितु शासन पर भी लागू होता है। आज इतने बड़े पैमाने पर अनियंत्रित पशु वध हो रहा है जिससे भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के नष्ण की संभावना है। अतः इसकी शुद्धि हेतु आवश्यकता है भगवान् महावीर के इस सिद्धान्त की- “सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं''४ आचारांगसूत्र के प्रथम पांच अध्यायों में, सूत्रकृतांग के सप्तम अध्याय में, दशवैकालिकसूत्र के चतुर्थ अध्याय में षट्कायिक जीवों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इन षटकायिक जीवों की सुरक्षा के उपाय भगवान् महावीर ने वैज्ञानिक अनुसंधान के पहले ही बता दिये हैं, जिससे षट्कायिक पर्यावरणीय संस्कृति की रक्षा हो सके। उमास्वाति का प्रख्यात सूत्र “परस्परोपग्रहो जीवानाम्''५ सह अस्तित्व का प्रतिपादन करता है। परन्तु मानव की संग्रहवृत्ति तथा क्रूरता के कारण आज हम जैन धर्म को भूल गये हैं। हम साल में कुछ विशेष तिथि तथा पर्यों में जैन धर्म के सिद्धान्तों को औपचारिक रूप से याद तो करते हैं लेकिन उन पर अमल नहीं करते। यह तो वही बात हुई कि पार्थिव शरीर की तो निन्दा की जाय और छाया का भी आदर किया जाये। आशय है कि इस चराचर जगत् में हम जो कुछ भी देखते हैं और जो कुछ भी बहुरंगी सौंदर्य स्वरूप हमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी, पर्वत और समुद्र के रूप में दृष्टिगोचर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136