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जैन धर्म एवं पर्यावरण संरक्षण
डॉ० श्याम सुन्दर शर्मा*
पर्यावरण का शब्दकोषीय अर्थ है - आस-पास या पास-पड़ोस अर्थात् किसी स्थान विशेष में मनुष्य के आस-पास भौतिक वस्तुओं (स्थल, जल, मृदा, वायु - ये रासायनिक तत्व हैं) का आवरण, जिसके द्वारा मनुष्य घिरा होता है, को पर्यावरण कहते हैं। भूगोल के विद्वान् पार्क ने पर्यावरण का अर्थ उन दशाओं के योग से लिया है जो मनुष्य को निश्चित समय में निश्चित स्थान पर आकृत करती हैं। पर्यावरण अविभाज्य समष्टि है तथा भौतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक (इसमें सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक सभी तत्वों का समावेश है) तन्त्रों से इसकी रचना होती है। सांस्कृतिक तत्व मुख्य रूप से मानव निर्मित होते हैं तथा सांस्कृतिक पर्यावरण की रचना करते हैं।
मानव, समाज की मूल इकाई है। पर्यावरण तथा समाज एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बंधित हैं। दूसरे शब्दों में ये परस्परावलंबी हैं। पर्यावरण की समस्या के निदान की उपयोगिता का निर्णय इस आधार पर लिया जाता है कि पर्यावरण सुधार एवं संरक्षण कार्यक्रम का पूरे समाज पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ता है। अब समाज पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति संवेदनशील एवं सचेत हो चुका है। पर्यावरण के प्रति जन समदाय की अभिरुचि भावनात्मक शिखर तक पहुंच चुकी है; लेकिन प्रश्न यह है कि वे कौन से साधन हैं जिनके द्वारा पर्यावरण के प्रति इस भावनात्मक जागरूकता को कार्य रूप दिया जा सकता है।
विज्ञान पर्यावरण संरक्षण नहीं कर सकता क्योंकि संरक्षण के स्थान पर वह प्रदूषण देता है और पर्यावरण संरक्षण संभव है तो केवल भारत के धार्मिक साहित्य के अध्ययन, उसके मनन और धर्म साधनाओं में बताये गये सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप देने से।
हमारे मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व मानव जीवन के कल्याणार्थ पर्यावरण का महत्व और उसकी रक्षा, प्रकृति से सानिध्य, संवेदनशीलता, रोगों के उपचार तथा स्वास्थ्य संबंधी अनेक उपयोगी तत्व निकाले थे। वैदिक कालीन समाज में न केवल पर्यावरण के सभी पहलुओं पर चौकन्नी दृष्टि थी; वरन् उसकी रक्षा और महत्व को *ग्रूप बी; पत्र व्यवहार का पता - २/१३८, विवेकानन्द कालोनी, डी० जे० कोठी के सामने, शिवपुरी - ४७३५५१ (म०प्र०)
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