Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 69
________________ लोगो अकिट्टिमो खलु, जीवाजीवहिं फुडो, जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो । सव्वागासावयवो णिच्चो ॥ १ वस्तुतः लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभाव से ही निर्मित है। जीव और अजीव द्रव्यों से व्याप्त है। संपूर्ण आकाश का ही एक भाग है तथा नित्य है । "सत्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । " जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । 3 ते जाणमजाणं वा, णं हणे णो वि घायए ।। " : ६३ लोक में जितने भी त्रस स्थावर जीव हैं उनका हनन न करें। जैन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने पृथ्वी, अप्, तेज और वायु को जीव समझा। सिर्फ पंचमहाभूत नहीं माना। Jain Education International कषायों के वशीभूत होने से हिंसा घटित होती है। प्रत्यक्ष हिंसा हो या न हो परंतु कषाय की उत्पत्ति आत्मघाती हिंसा है। जैन धर्म हिंसा के कारणों पर प्रकाश डालता है। मनुष्य हिंसा करता है : १) अपने जीवन यापन के लिये २) प्रशंसा पाने के लिये ३) सम्मान की प्राप्ति के लिये ४) पूजा आदि पाने के लिये ५) जन्म निमित्त से ६ ) मृत्यु निमित्त से . ७) मुक्ति की लालसा से ८) दुःख के प्रतिकार हेतु इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण - म - माणण-पूयणाए, जाईमरण मोयणा दुक्ख पडिघात हेतुं ॥ ७ ॥ * सावद्य क्रिया से कर्मबन्ध होना मनुष्य जान लेगा तो वह “प्रत्याख्यान परिज्ञा" को अपनाकर पर्यावरण संरक्षण में सहयोग देगा। इस बारे भगवान् महावीर ने परिज्ञा - विवेक का आदेश दिया। कोई व्यक्ति जीवन यापन के लिये, प्रशंसा मान आदि के लिये पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, करवाता है या अनुमोदन करता है, उसकी अबोधि अर्थात् ज्ञान-दर्शन- चारित्र बोधि की अनुपलब्धि के लिए कारणभूत होगी।" रहने के लिये मकान चाहिए। दो कमरे में पर्याप्त ढंग से जीया जा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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