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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
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आधार बनाकर प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करके "जियो और जीने दो' का रास्ता अपनाना होगा। अगर इसकी उपेक्षा की गई और सार्वजनिक जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तों का पालन न किया तो विश्व का पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जायेगा जिसका उत्तरदायित्व शासन का नहीं समाज का एवं स्वयं व्यक्ति का होगा; क्योंकि बाह्य पर्यावरण संरक्षण के अतिरिक्त हमें सर्वप्रथम अपने भावों, विचारों को शुद्ध करना होगा जिसे हम आत्म शुद्धि या "अन्तर्पर्यावरण संरक्षण" का नाम दे सकते हैं। ऐसी तन शुद्धि; मन शुद्धि एवं वचन शुद्धि भगवान् महावीर के बतलाये गये सिद्धान्तों से ही प्राप्त हो सकती है।
जैन एवं जैनेतर धार्मिक साहित्य के अध्ययन एवं मनन,से यह बात ज्ञात होती है कि अन्य धर्म शास्त्रों कि अपेक्षा जैन धर्म में पर्यावरण संरक्षण के पर्याप्त निर्देश उपलब्ध हैं। वर्तमान में हो रहे प्रकृति के संसाधनों का दोहन, भूखनन, वायु प्रदूषण, जंगलों का काटना आदि ये सब जैन धर्म के अनुसार महारंभ की श्रेणी में आते हैं, जो अधोगति अर्थात् नरक के कारण हैं। हम आत्म कल्याणियों का कर्तव्य है कि इनसे बचें और जैन धर्म-साधना द्वारा इनका संरक्षण करें।
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