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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ५९ में सहायक ही नहीं; अपितु आवश्यक भी है। इस तत्व को वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है कि वृक्ष कार्बनडाई आक्साइड को, जो मनुष्य द्वारा उच्छवासित होती है, उसे ग्रहण करते हैं तथा उनके द्वारा उच्छवासित आक्सीजन को मनुष्य ग्रहण करता है जो मानव का जीवन आधार है। जैन धर्म ग्रन्थों में वन सम्पदा के महत्व को प्रतिपादित किया गया है जो पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक है। इससे धर्मलाभ के साथ-साथ स्वास्थ्य लाभ भी होता है।
जैन धर्म में अपरिग्रह का जो आदर्श है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। तत्वार्थसूत्र में अपरिग्रह अर्थात उपभोग के संयम का जो वृत्त दिया है वह पर्यावरण विज्ञान का महत्वपूर्ण सूत्र है। इसमें पदार्थ की भोग सीमा निर्धारित की गई है जो संयम का भी प्रतीक है। पदार्थ सीमित हैं इसलिये उपभोग कम करो। इससे स्पष्ट होता है कि धर्म और पर्यावरण पर्याय हैं क्योंकि पर्यावरण संरक्षण ही धर्म का मूल है। यह बात अहिंसा एवं अपरिग्रह के सिद्धान्तों से सिद्ध होती है।
जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल इन सभी में पर्यावरण संरक्षण के तत्व विद्यमान हैं। जैन धर्म की दैनिक धार्मिक क्रियायें जैसे - अहिंसा, छानकर पानी पीना, रात्रि भोजन निषेध, शाकाहार, स्वल्प वस्त्र धारण करना, मन, वचन, कर्म की शुद्धता, ब्रम्हचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि द्वारा जीव रक्षा हो सकती है और ये ही पर्यावरण संरक्षण में सहायक हैं।
__ पर्यावरण संरक्षण भौतिक जीवन के लिये आवश्यक और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जैन धर्म में तो यहाँ तक कहा गया है कि मांसभक्षी या हिंसक (जो पर्यावरण संरक्षण में बाधक हैं) लोग रास्ते में मिलें तो जैन मनि को भिक्षा के लिये उधर जाने का विचार नहीं करना चाहिये। माँसाहार से नरक प्राप्ति होती है और इससे किंचित सम्बंध रखने वाला पाप का भागी है। मांस बेचने वाला, पकाने वाला, खाने वाला, खरीदने वाला, अनुमति देने वाला तथा दाता ये सभी हिंसक हैं। ये सभी पर्यावरण प्रदूषक हैं संरक्षक नहीं। जैन धर्म में मांस की कौन कहे जैन साधु के लिये तो घी, दूध आदि भी वर्जित हैं। इससे यह बात स्पष्ट समझी जा सकती है कि जैन शास्त्रों में अहिंसा पर कितना बल दिया गया है। यदि आधुनिक परिवेश में मानव समाज इन सिद्धान्तों से प्रेरित होकर कर्म करें तो ये मानव जीवन और विश्व की सुख शांति के लिये सार्थक सिद्ध होंगे।
जैन धर्म के सिद्धान्तों का तात्विक विवेचन इसकी वैज्ञानिक स्थिति को पुष्ट करता है। यह धर्म इतना व्यापक, परिपुष्ट और पवित्र है कि इसे शाब्दिक जाल में नहीं बांधा जा सकता। जैन धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन और पालन जिस त्याग, तप और साधना द्वारा जैन आचार्यों ने किया है वह अवर्णनीय है। यह मानव जीवन के आदर्श का पर्याय और धर्म का सच्चा स्वरूप है जिसने जीव और अजीव सभी
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