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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ६७
के कारण वातावरण की शांति नष्ट हो रही है। वातावरण में जब कोई आघात होता है तो कंपन पैदा होते हैं। किसी माध्यम का सहारा लेकर वे फैलते हैं। इन ध्वनितरंगो को नापा जा सकता है। ६० से ७० डेसीबल ध्वनि सह्य होता है; परंतु ध्वनि ११० से १४० डेसीबल तक बढ़ाते हैं जो श्रवणेन्द्रियों के लिये हानिकारक है।
वायुप्रदूषण में मुख्यत: कार्बन डाई आक्साइड का प्रमाण बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। तापमान की इस वृद्धि के कारण समुद्र तक बढ़ता जा रहा है। यह गति ऐसी ही रही तो समुद्रतटीय प्रदेश कैलिफोर्निया, मैक्सिको, अफ्रीका के किनारी प्रदेश, भारत के तटवर्ती भाग समुद्र निगल जायेगा। उत्तर ध्रुवीय प्रदेश में बर्फ पिघलकर समुद्र तल ऊपर उठेगा। दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र पर भी बर्फ की रचना में पतलापन आयेगा। जैन दर्शन की मान्यतानुसार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल की समाप्ति के बाद सब सृष्टि जलमय हो जायेगी। पुराणों में भी इसकी पुष्टि मिलती है। औद्योगिकीकरण से नत्रवायु, कर्बवायु, गंधक वायु हवा में मिल जाती है। वाहनों से लेड ऑक्साईड जैसे वाय हवा में मिल जाते हैं। वर्षा के पानी में वे मिल जाते हैं। जमीन पर जब वर्षा होती है तो यह आम्लीय गुणधर्म का पानी जमीन के सत्त्व को बिगाड़ देता है। हजारों हेक्टेयर जमीन अपनी उपज क्षमता खो चुकी है। रासायनिक खाद डालकर मनुष्य ने उसे और बिगाड़ दिया है। शास्त्रों में उल्लेख मिलते हैं कि जब सुषमा आरा चल रहा था, तो उस समय जमीन का स्वाद मिश्री जैसा था। आज न तो वह स्वाद रहा न उत्पादन क्षमता रही। जैन आगमों ने यह बात २५०० वर्ष पूर्व कही थी। किसी भी जीव के अस्तित्व के लिये वायु आवश्यक है। वायुप्रदूषण करने में हमने सिर्फ धरातल ही बिगाड़ा ऐसी बात नहीं। अन्तरिक्ष यान आकाश को आंदोलित कर रहे हैं और ओजोन के स्तर को क्षति पहुँचा रहे हैं।
जो दूसरों के दुःख समझ सकता है वही हिंसा से परावृत्त होता है। वही व्यक्ति हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ है। जो अपने को और दूसरे को एक तराजू में तौलता है। संयमी पुरुष हिंसा नहीं करेगा यही जिनशासन कथित मार्ग है।१३ अज्ञान से प्राणी समझता है कि वह दूसरे को दुःख पहुँचा रहा है, परंतु शास्त्रकार ने यहाँ बतलाया है कि उसने सुख-दु:ख के रहस्य को नहीं समझा। दूसरे को दुःखी बनाने वाला स्वयं दुःखी बनता है। वैसे ही दूसरे को सुखी बनाने वाला अपने आपको सुखी बनाता है।
भगवान् ने वायुकायिक हिंसा के विषय में परीक्षा बतलायी है। इसी जीवन का निर्वाह करने के लिए, प्रशंसा, सम्मान, सत्कार और महिमा पूजा के लिये, जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिये, शारीरिक और मानसिक दु:खों का निवारण करने के लिये जो वायुकाय की हिंसा करता है, करवाता है, अनुमोदना देता है: वह हिंसा उसके लिये अहितकर है। आज हम यह हिंसा करते हैं। प्रदूषण का पाप
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