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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
धरातल पर जितने भी जीव हैं, सब जीना चाहते हैं। सिर्फ मनुष्य ही निसर्ग नियमों को छोड़कर अपने ढंग से जीना चाहता है; इसलिये संस्कृति का विकास सिर्फ मनुष्य जाति में हुआ। निसर्ग से हमें जो प्राप्त है वह है प्रकृति । प्रकृति के कार्य में कुछ बिगाड़ हो जावे तो वह है विकृति । प्रकृति को विकृति में बचाने का उपाय है संस्कृति। निसर्ग से प्राप्त पदार्थों को अपने जीवन के लिये अनुक्रम तथा उपयुक्त बदलाव तथा कभी-कभी कुछ संस्कार करके उन चीजों को उपयोग में लाकर मनुष्य अपना जीवन क्रम चलाता है। मानव बाह्यविश्व तथा अंतरचेतना द्वारा मन-बुद्धि पर विजय पाकर अपना जीवन सफल बनाता है। अपना शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सब सम्मिलित रूप से आनंद पाना चाहते हैं। सृष्टि की विकास प्रक्रिया में मनुष्य सबसे अधिक विकसित है। मनुष्य अपने जीवन के तीन प्रमुख ध्येय मानता है। १) दीर्घ आरोग्यदायी आयु २) ज्ञान का विस्तार ३) उच्च रहन-सहन । उच्च रहन-सहन की आकांक्षाओं में आरोग्यपूर्ण आयु को मानव खो रहा है। ज्ञान की कक्षा का विस्तार तो किया परंतु वह जड़वादी तत्त्वज्ञान तथा भौतिकता पर आधारित होता जा रहा है। परिणामतः उपभोगवादी प्रवृत्तियाँ अधिक से अधिक बढ़ती गईं। निसर्ग से लेकर यंत्रमानव तक सबका उपयोग किया; परंतु विकास के दौर में एक नई समस्या खड़ी होती गई। हर सुधारणा एक नई समस्या को जन्म देती है । यह समस्या है " पर्यावरण के रक्षण" की ! धरातल पर हमें जो भी प्राप्त है; वह हमारे जीवन के लिए अत्यंत उपयुक्त है; यह धरोहर ही हमारा " पर्यावरण" है। हवा, पानी, यह जमीन, ऊर्जास्तोत्र मनुष्य ने निर्मित नहीं किये। निसर्ग को मनुष्य ने क्या दिया ? निसर्ग कृतज्ञ है। नारियल के पेड़ को पानी मिलता है, तो वह अधिक मीठा पानी लौटाता है। धरती एक बीज के सैकड़ों बीज बना कर मनुष्य को लौटा देती है। पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश इन पंचमहाभूतों के स्तर बदलते जा रहे हैं। क्योंकि मनुष्य अपनी बुद्धि का जाल फैला रहा है। प्रकृति में विकृति पैदा कर रहा है। यही पर्यावरण की यानि प्रदूषण की समस्या है।
कमलिनी बोकारिया*
" जैन धर्म" आत्मलक्षी धर्म है। जैन साधना में आत्मा प्रमुख है। अहिंसा और दया इसके प्रमुख आधार हैं। भगवान् महावीर कहते हैं
* ग्रूप बी; पत्र व्यवहार का पता
६४,
मेलीबेस सीमेन्ट कार्नर, बीड,
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महाराष्ट्र
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