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वह पशुधन जो सीमित तथा राष्ट्र की अमूल्य संपदा हैं, को वह आर्थिक लालच में खोता जा रहा है। इन प्राकृतिक साधनों की बचत का एक मात्र उपाय अपरिग्रह व्रत है जिसमें आवश्यकताएँ सीमित तथा तृष्णा और कामनायें नियंत्रित होती हैं। इसी के द्वारा विविध देश युद्ध की संभावनाओं को समाप्त कर परमाणु विस्फोटों को रोककर पर्यावरण रक्षण कर सकते हैं।
वर्तमान युग में पर्यावरण असंतुलन का सबसे बड़ा कारण देश की बढ़ती जनसंख्या है जो लगभग एक अरब की सीमा पार कर चुकी है। आज सरकार कृत्रिम उपायों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण के निर्देश दे रही है जबकि भगवान् महावीर ने इसका प्राकृतिक उपाय ब्रह्मचर्य बताया है।
पर्यावरण संरक्षण हेतु संयम सूत्र की आवश्यकता है यह उतना ही सत्य है जितना सूर्य के होने पर दिन का होना। पदार्थ सीमित हैं अतः उनका उपभोग कम करो, पानी का व्यय कम करो। यह सूत्र धर्म का नहीं पर्यावरण का है। जैन धर्म कहता है कि- खाद्य का संयम करो, वस्त्र का संयम करो, वाहन का संयम करो, यातायात का संयम करो और उपभोग का संयम करो और पर्यावरण विज्ञानी कहेगा- पदार्थ कम है, उपभोक्ता अधिक हैं इसलिए उपभोग को सीमित करो।
कहा जाता है कि संयम ही जीवन है। तब लोग प्रश्न करते हैं कि संयम जीवन कैसे? इस प्रश्न का उत्तर बहुत स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्र में असंयम का परिणाम बहुत ही दुःखद होता है। व्यापारी एवं राजनेताओं में संयम न हो तो भ्रष्टाचार होता है। राजा में इन्द्रिय संयम न हो तो राज्य विनष्ट होता है। इसी प्रकार यदि पर्यावरण को संतुलित करना है तो इस क्षेत्र में भी संयम करो। यदि औद्योगीकरण असंयमित होगा तो प्रदूषण होगा। इसके विपरीत संयमित होने से पर्यावरण पर कुप्रभाव नहीं होगा। यातायात आदि का संयम करने को भी इसी कारण कहा गया है। इस संदर्भ में संयम द्वारा ही पर्यावरण संरक्षित हो सकता है यह रहस्य समझा जा सकता है। संयम पर्यावरण संरक्षण की प्रमुख अपेक्षा है।
इस प्रकार ये पांच अणव्रत अणबम जैसे विस्फोटों को शांत कर पर्यावरण संरक्षण का सामर्थ्य रखते हैं। आवश्यकता है इनके प्रयोग की।
अनादि काल से ही जैन धर्म पर्यावरण से सम्बन्धित है प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी तक सभी तीर्थंकरों की माता तीर्थंकर का जीव गर्भ में आने पर जो चौदह स्वप्न देखती हैं वे वनस्पति जगत् से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक तीर्थंकर को किसी न किसी वृक्ष के नीचे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके के बाद वे अशोक वृक्ष के नीचे ही देशना करते हैं, जिसको सुनने देव तथा मनुष्य ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण पशु-पक्षी भी आते हैं। जैन धर्म के समस्त तीर्थ प्राकृतिक स्थलों पर हैं तथा अनेक स्थान जहाँ मुनि भगवन्तों का निर्वाण हुआ वे सभी
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