Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 59
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ५३ प्रदूषण के परिणाम :- १) दूषित वायु में श्वास लेने पर इसका सीधा प्रभाव हमारे श्वसन तंत्र पर पड़ता है। कल-कारखानों व वाहनों से निकलने वाले धुएँ में उपस्थित हानिकारक गैसों - सल्फर डाई ऑक्साईड, अमोनिया आदि के कारण आँखों में जलन, जुकाम, दमा इत्यादि रोग हो जाते हैं। २) जल प्रदूषण से प्रति वर्ष संसार में अढाई करोड़ बच्चे पांच वर्ष की उम्र तक पहुँचने से पूर्व ही काल के ग्रास बन जाते हैं। साथ ही दूषित जल के उपयोग से हम डायरिया, हैजा, मोतीझरा, पेचिश आदि रोगों के शिकार हो जाते हैं। ३) ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव मनुष्य के मस्तिष्क पर पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से कई प्रकार के मानसिक व अन्य रोग हो जाते हैं, जैसे- चिड़चिड़ापन, बहरापन, सिरदर्द, उच्चरक्तचाप, अनिद्रा आदि। जैन धर्म और पर्यावरण - जैन धर्म और पर्यावरण में चोली-दामन का सम्बन्ध है। जैन धर्म वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर खरा उतरने वाला धर्म है। जैन धर्म के श्रमणाचार और श्रावकाचार का हम गहराई से अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि इन दोनों में कितना अटूट सम्बन्ध है। प्रकृति ने हमें कई चीजें दी हैं - जैसे पेड़, पौधे, नदियां, घाटियां, ऊँचे पर्वत, जीव-जन्तु इत्यादि। किन्तु इनमें पेड़-पौधों और जीव-जन्तु की महत्ता कुछ अलग ही है। ये प्रकृति के ऐसे घटक हैं, जो प्रकृति का संतुलन बनाये रखने और मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति में सहयोग देते हैं। चार तीर्थंकरों के प्रतीक चिह्न - सिंह, बैल, सूअर और सर्प भी पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सहयोग देते हैं। इसी प्रकार प्राणवायु के जनक वृक्षों का सम्बन्ध भी इस धर्म से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक तीर्थंकर के जन्म, तप, दीक्षा, केवलज्ञान आदि कल्याणक बड़े-बड़े अशोक, जामुन, शाल्मली आदि पेड़ों के नीचे ही हुए हैं, जिससे ये वृक्ष हमारे पूजनीय हो गये हैं। प्रकृति के इस रहस्य और महापुरुषों की इस देन को मनुष्य ने भुला दिया है। जहाँ एक पेड़ काटना भी महापाप माना जाता है वहां मनुष्य बेरहमी से निरन्तर हरे-भरे वन काट रहा है और महा हिंसा का भागी बन रहा है। अंतगडदसाओ और अन्य शास्त्रों में जगह-जगह स्थविरों का वर्णन आता है कि वे अपनी शिष्य मंडली के साथ गाँव के बाहर वनखंडों से घिरे चैत्य में आकर विराजते हैं जैसे कि अंतगडदसाओ के प्रथम अध्ययन में ही - "अज्ज सुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता अज्जासुहम्मे थेरे तिक्खत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ। करेत्ता वंदति नमसति, वंदिता नमंसित्ता अज्जसुम्मस्स थेरस्स----" ऐसा वर्णन आता है। इसी प्रकार जैन धर्म के तीर्थ स्थल भी हरे-भरे वन खंडों से घिरे हुए हैं। सम्मेतशिखरजी की पावन निर्वाण भूमि, गुजरात का शत्रुजंय तीर्थ आदि पर्वतमालाओं से घिरे हुए शुद्ध पर्यावरण से युक्त हैं। जैन श्रमण पहले घने वनों या गुफाओं को ही अपनी तपस्थली बनाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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