Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ ४८ रखने का सबसे प्राचीन, समन्वित, समग्र और वैज्ञानिक प्रयत्न संभवत: जैनों ने ही आचारांगसूत्र के माध्यम से किया। वनस्पति की सुरक्षा की बात न्यूनाधिक रूप से सभी धर्म करते हैं, पर जैन धर्म में तीर्थंकरों के सम्पूर्ण चिन्तन की धुरी वनस्पति संरक्षण है। बारहवीं सदी के भरतबाहुबलिमहाकाव्य में वृक्षवर्णनों के साथ वन - संरक्षण का बृहद् वर्णन मिलता है। आदिपुराण में वन-संरक्षण एवं सघन वनों का जो वर्णन किया गया है उसे अरण्य संस्कृति कहा जाता है। अरण्य संस्कृति के अनुसार सम्पूर्ण विश्व एक वृक्ष है जिसे लोक कहा है। लोक के एक भाग पर मानव रहता है जो जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाता है। यूं तो मानव प्रारम्भ से ही कल्पतरु वनस्पति पर निर्भर रहता आया है। तीर्थंकर भगवन्तों के अनुसार एकेन्द्रिय जीव होने के कारण वनस्पति जीवन से परिपूर्ण है। किसी भी जीव को नहीं मारना वनस्पति को भी नष्ट न करने का संदेश देता है। आचारांग में कहा भी है - "सव्वे पाणा सव्वे भूता, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा' अर्थात् कोई भी प्राणी, कोई भी जन्तु, कोई भी जीव, कोई भी प्राणवान मारा नहीं जाना चाहिए। क्योंकि इनको नष्ट करने से सभी के कष्टों में वृद्धि होगी। आचारांग में कहा है - पाणा पाणे किलेसंति बहु दुक्खा हु जंतवो। जीव जीव को सताता है, वास्तव में इसी कारण हर जीव कष्ट में है। महावीर ने अपने विहार के समय हर प्राणी का पूरा-पूरा ध्यान रखा, जैसा कि - पुढ़विं च आउकायं च तेउकायं च वायुकायं च। पणगाइं बीयहरियाई तसकायं च सव्वसो णच्चा।। अर्थात् पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, शैवाल बीज और हरी वनस्पति तथा त्रसकाय जीव हैं, ऐसा जानकार वे विहार करते थे। वनस्पति को सभी तीर्थंकरों ने जीव माना है। जैन जगत् के श्रावक नियमों के अनुसार दैनिक जीवन में इनका उपयोग वर्जित है। श्रावक के १४ नियमों में कहा है - सतित्तदव्व विग्गई, पन्नी-तंबुल-वत्थ कुसुमेसु। वाहण-समण-विलेसण, बंभ दिसि नाहण भत्तेसु।। अर्थात् फूलों के उपयोग में भी मितव्ययी होना चाहिए। यहाँ तक कि सूखे मेवों, खाद्यान बीजों आदि का उपयोग यथासंभव हमें कम से कम करना चाहिए। __ आगमों में वनस्पति में जीव होने का पूर्ण प्रमाण मिलता है। यहाँ तक कि इनमें दूसरी समस्त क्रियाओं की अनुभूति भी मानव की तरह ही होती है। आचारांग में लिखा है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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