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है। जैन श्रावक के नियमों के अनुसार दैनिक जीवन में इनके उपयोग को वर्जित माना गया है। श्रावक के २४ नियमों में कहा है।
सचित्तदल विग्गई पन्नी तंबुल-वत्थ-कुसुमेसु। वाण-समण-विलेवण, बम्भदिसि नाहण भत्तेसु।।
अर्थात् फूलों के प्रयोग में भी मितव्ययी होना चाहिए, यहाँ तक कि सूखे मेवों, खाद्यान्न बीजों आदि का उपयोग यथासंभव कम से कम करना चाहिए।
आगमों में वनस्पति में जीव होने का पूर्ण प्रमाण मिलता है। यहाँ तक कि इनमें दूसरी समस्त क्रियाओं की अनुभूति भी मानव की तरह ही होती है। आचारांग में लिखा है
से बेमि- इमं पि जातिधम्मयं, एयं पि जातिधम्मयं। मनुष्य भी जन्म लेता है और वनस्पति भी जन्म लेती है।
इमं पि वुड्डिधम्मयं, एयं पि वुड्डिधम्मयं। यह भी वृद्धि धर्मवाला होता है और वनस्पति भी।
इमं पि छिण्णं मिलाति, एयं पि छिण्णं मिलाति! मनुष्य भी कटा हुआ उदास होता है और वनस्पति भी काटने पर सूखने से निर्जीव हो जाती है। इमं पि आहारगं, एयं पि आहारागं ! मनुष्य भी आहार करने वाला होता है और वनस्पति भी।
इमं पि अणितियं, एवं पि अणितियं, यह भी नाशवान होता है और वनस्पति भी नाशवान होती है।
इमं पि असासयं, एयं पि असासयं, मनुष्य भी हमेशा रहने वाला नहीं और वनस्पति भी नाशवान है।
इमं पि चयोवचइयं, एयं पि चयोवचइयं, नाशवान मनुष्य भी बढ़ने वाला व क्षय वाला होता है और वनस्पति भी बढ़ने वाली और नाशवान होती है।
इमं पि विप्परिणामधम्मयं, एयं पि विप्परिणामधम्मयं- मनुष्य भी परिवर्तन स्वभाव वाला होता है और वनस्पति भी परिवर्तन स्वभाव वाली होती है।
वनस्पति के उपयोग का निषेध करते हुए तीर्थंकरों ने कहा है कि प्रचार-प्रसार और पूजा-पाठ में इनका उपयोग करना पाप है। कहा है
एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए।
इच्चत्थं गढिए लोए जमिण विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सतिकम्मसमारभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति। यह आशक्ति है, यह
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