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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
रोहित गांधी*
तीर्थंकरों की अवधारणाओं को समझने पर एक परिणाम निकलता है कि जैन, व्यक्ति नहीं, सम्प्रदाय व समाज नहीं अपितु एक सृष्टि संरक्षण का व्यावहारिक नियम है और यदि इसे धर्म का नाम दिया जाता है तो निःसन्देह यह विश्व धर्म है। वर्तमान समय में धर्म एक फिरका, मजहब या विशिष्ट समूह की पारम्परिक शैली या नीति को माना जाता है। किन्तु, जैन धर्म की तीर्थकरीय विचारधारा इन कठोर दीवारों को तोड़कर विश्व मैत्री का पाठ पढ़ाती है और यह अहिंसा रूपी नींव पर आधारित है। अहिंसा के आधार पर सृष्टि का संवर्धन किया जाता है। सच तो यह है कि अहिंसा सष्टि का 'क्लोरोफिल' है। सभी जीव एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं जो अहिंसा के आधार पर पनपते हैं। यह अवधारणा सभी तीर्थंकरों की है। वस्तुत: यही सम्पूर्ण जैवमण्डल के संरक्षण का आधार है। २४वें तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी का "जीओ और जीने दो' का प्रभावशाली और चिरस्थाई उद्घोष न केवल मानवीय मूल्यों की सुरक्षा की विद्या सिखाता है, अपितु सम्पूर्ण पर्यावरण के अस्तित्व का मूल मन्त्र देता है। सभी तीर्थंकरों का सम्मिलित उद्घोष प्राणिमात्र की रक्षा एवं पर्यावरण संरक्षण की अचूक औषधि है।
वर्तमान विश्व पर्यावरण संकट की चरम सीमा पर पहुंच चुका है। एक ओर जल, वायु एवं मिट्टी प्रदूषण मानव, पशु, वनस्पति और प्राकृतिक घटकों पर जानलेवा प्रभाव डाल रहे हैं, तो दूसरी ओर वन, खनिज, जल एवं अन्य संसाधनों के बेतहाशा दोहन से पर्यावरण अवनयन बड़ी द्रुत गति से हो रहा है। भूमण्डलीय ताप बढ़ने से बर्फ पिघलने के कारण निकट भविष्य में समुद्री तटों पर रहने वाली, विश्व की लगभग आधी जनसंख्या के घर जल स्तर बढ़ने से जलमग्न हो जायेंगे।
यदि हमें इस सृष्टि को बचाना है तो नि:संदेह, तीर्थंकरों के पर्यावरण सिद्धान्त के आधार पर चलना होगा। उनका यह सिद्धान्त इसलिए कारगर है कि वे पर्यावरण के रक्षक रहे हैं। इस सभी के लांछन या चिह्न तक पर्यावरणीय घटकों पर आधारित हैं। २४ में से ११ तीर्थंकरों के चिन्ह तो सजीवों पर आधारित हैं। उनमें भी १५ स्थल *द्वितीय पुरस्कार प्राप्त आलेख (ग्रुप- ए) द्वारा श्री जेठमल गाँधी २४७/४, लखन कोठारी, दर्जी मोहल्ला, अजमेर
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