Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण रानू गांधी* -- पर्यावरण या समग्र प्रकृति एक दूसरे का पर्याय है। केवल नदी, जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी और हवा ही पर्यावरण नहीं हैं। हमारे सामाजिक एवं आर्थिक सरोकार और हमारी सांस्कृतिक-राजनैतिक, समसामयिक परिस्थितियाँ भी पर्यावरण की फलक हैं। वस्तुत: प्राकृतिक पर्यावरण इन सभी फलकों को सर्वाधिक प्रभावित करता है, क्योंकि विकास की धुरी में प्राकृतिक संसाधनों का ही प्रमुख स्थान है। संतुलित पर्यावरण का अर्थ जीवन और जगत् को पोषण देना है। इस धरती पर जो कुछ दृश्यमान या विद्यमान है, वह पोषित हो, यही पर्यावरण का अभीष्ट है और यह दायित्व चेतनशील मनुष्य का है। पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे मनुष्य से कम चेतनशील हैं। यदि मनुष्य अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए उनका विनाश करता है, तो हम न तो उसे चेतनशील कह सकते हैं और न विवेकशील। जैन धर्म विश्व का वह प्रथम धर्म है जिसने धर्म का मूलाधार पर्यावरण सुरक्षा को मान्य किया है। भगवान् महावीर का सबसे पहला उपदेश आचारांग में संरक्षित किया गया है। आचारांग का पहला अध्ययन षट्काय-जीवों की रक्षार्थ रचा गया। महावीर ने स्पष्टः जोर दे कर कहा कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीव हैं साक्षात् प्राणधारी जीव। इन्हें अपने ढंग से जीने देना धर्म है, इन्हें कष्ट पहुँचाना या नष्ट करना हिंसा है, पाप है। अहिंसा परम धर्म है और हिंसा महा पाप। इन्हीं षटकायिक जीवों की संतति पुरानी शब्दावली में संसार और आधुनिक शब्दावली में पर्यावरण से अभिहित है। अपने संयत और सम्यक् आचरण से इस षटकायिक पर्यावरणीय संस्कृति की रक्षा करना जैन धर्म का मूलाधार है। जैन धर्म ने ही सबसे पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पतियों को जीव कहा। त्रसकाय जीवों को तो और भी विचारक जीव या प्राणी मानते रहे। अब विज्ञान ने सर जगदीशचन्द्र बसु की खोज के आधार पर वनस्पतियों को जीव मानना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु षटकायों के पहले चार काय पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि को जीव की श्रेणी में केवल जैन ही रखते हैं और उन्हें अन्य जीवों की भाँति अपने धर्माचार में स्थान दिए हुए हैं। इस आस्थागत अवधारणा के आधार पर न केवल *प्रथम पुरस्कार प्राप्त आलेख (ग्रुप- ए) द्वारा- श्री पारसमल गाँधी, २४७/४, लखन कोठारी, दर्जी मोहल्ला, अजमेर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136