Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 25
________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : १९ होने वाले पर्यावरण प्रदूषण से त्राण हो सकता है। आजीविका के पर्याप्त साधन के अभाव और अब्रह्मचर्य के कारण अधिक सन्तानोत्पत्ति हो जाती है और सन्तान के समुचित भरण-पोषण का अभाव होने से संतान के होने वाले शारीरिक तथा मानसिक कष्ट का निमित्त बनकर मानव एक तरह से हिंसा का ही आचरण करता है। उसकी कुपोषित अथवा अल्पपोषित और अशिक्षित संतान जीवननिर्वाह के योग्य नहीं बन पाती जिसके कारण सामाजिक और आर्थिक पर्यावरण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। इन्द्रियों का असंयम पर्यावरणप्रदूषण की समस्या को उग्र बना देता है। . - भोजन-संयम और शाकाहार से पर्यावरणशद्धि- भोजन का असंयम और मांसाहार भी पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का जनक है। सभी धर्मशास्त्रों में आहारशुद्धि और सात्विकता पर बल दिया गया है। इसलिए कहा गया है"आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः" "यादृशं भोजनं तादृशी मतिः" । जैन धर्म में आहार विधि, आहारचर्या, आहारविवेक आदि पर विस्तृत चर्चा की गयी है। संसार में असंयत कामवासना तथा चल और अचल सम्पत्ति के प्रति अतिलोभ के कारण तो हिंसा होती ही है। यदि इन हिंसानिमित्तों के अतिरिक्त कोई प्रबल हिंसानिमित्त है तो वह है- मानव की निरंकुश मांसाहारवृत्ति। मनुष्य का प्रयास यह होना चाहिए कि वह शाकाहार ही ग्रहण करे और आहारनिमित्तक हिंसा के अधिकतम अल्पीकरण में प्रवृत्त हो। आहार-विषयक बद्धमूल अज्ञान और मिथ्याज्ञान के कारण ही मनुष्य मांसाहार में प्रवृत्त होता है। असंयत मांसाहारवृत्ति के कारण आज विश्व की दो-तिहाई जनसंख्या मांसाहारी है। मांसाहार की प्राप्ति के लिए असंख्य पशु-पक्षियों तथा मछली आदि जलचरों की हिंसा की जाती है। उन हिंसित प्राणियों के शरीर के अभोज्य अवयवों को सड़कों पर फेंकने तथा अभोज्य तरल पदार्थों को नालियों में बहाने से पर्यावरण प्रदूषण की भयंकर समस्या उत्पन्न होती है। इतना ही नहीं, हिंसित प्राणियों के रोगज़नक कीटाणुओं का मांसाहार के कारण मनुष्य शरीर में संक्रमण होने से पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या और उग्र हो जाती है। कृषिविशेषज्ञों के शोध का यह निष्कर्ष है कि शाकाहार द्वारा हमें निश्चित कैलोरी शक्ति प्राप्ति के लिए जितनी भूमि चाहिए उससे छ: गुनी भूमि पशुओं का मांस प्राप्त करने के लिए चाहिए। जानवरों के चरने के लिए जो फसल लगाये जाते हैं उन्हें तुरन्त उखाड़ना पड़ता है या उन्हें मवेशी चर जाते हैं। जबकि यदि वहाँ वृक्षादि लगाये जायें तो जमीन बचेगी। इस प्रकार मांसाहार भी पर्यावरण का संकट पैदा करता है। जानवर के मांस के लोभ में हम जमीन का क्षरण करते हैं और वृक्षादि न लगाकर पृथ्वी को रेगिस्तान बनाकर दुष्चक्र में फंसते हैं। अपनी जिह्वा के स्वाद के लिए निर्दोष प्राणियों का वध सचमुच एक सांस्कृतिक अपराध है। शाकाहार के लाभ नि:सन्दिग्ध रूप से प्रमाणित हैं। वस्तुत: जैन धर्म ने भोजनसंयम और शाकाहारवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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