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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
अमित बहल*
आज संसार के समक्ष उत्पन्न समस्याओं में पर्यावरण की समस्या सर्वाधिक विकट है। यूरोप से आरम्भ होकर शनैः-शनैः समस्त विश्व में फैली औद्योगिक क्रान्ति ने जहाँ एक ओर भौतिक संसाधनों का प्रकृति से अनवरत दोहन आरम्भ किया तो दूसरी ओर नग्न साम्राज्यवाद के शोषण तंत्र को गति दी। आणविक अस्त्रों के भूमि व वायु में लगभग अठारह सौ से भी अधिक परीक्षणों के दुष्परिणाम से संपूर्ण विश्व चौकन्ना हो गया। आज पर्यावरण को लेकर सभी देशों में एक चेतना पैदा हो चुकी है। यह चेतना है जल, वायु, ध्वनि और पृथ्वी के शुद्धि की। पर्यावरण शुद्धि प्राणिमात्र के लिए अति आवश्यक है। औद्योगीकरण के गतिशील चरणों ने जल, वायु एवं ध्वनि को प्रदूषित कर रखा है। कल-कारखानों के बढ़ने के साथ मानवजनित कचरामल-मूत्र भी नदियों में गिराया जाने लगा। भारत सहित दुनिया भर में पिछले १५२० वर्षों से ऐसी ही दुविधापूर्ण स्थितियों ने पानी को नदियों-तालाबों से उठाकर बोतलों में बंद कर दिया। पानी पिलाकर पुण्य कमाने की अवधारणा इसे खरीदनेबेचने की सभ्यता की चौखट पर दम तोड़ चुकी है। . विज्ञान में पर्यावरण हेतु 'इकोलॉजी' शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका
अभिप्राय है कि प्रकृति के सभी पदार्थ एक-दूसरे पर निर्भर हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि एक पदार्थ भी प्रकृति अथवा अपने स्वभाव के विपरीत जाता है तो प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है, जो अतिवृष्टि, भूचाल, बाढ़, प्रचण्ड गर्मी, अल्प वर्षा आदि के रूप में भयावह हानि पहुँचाता है। पृथ्वी एवं सूर्य के मध्य ओजोन की छतरी है। यह पृथ्वी की सतह से ऊपर दस से पन्द्रह किलोमीटर के बीच समताप मण्डल में स्थित एक विरल परत है। यह अंतरिक्ष से आने वाली पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक पहुँचने से रोकती है। प्राकृतिक असंतुलन और प्रदूषण के कारण उसमें छिद्र हो गए हैं जिससे जीवन के लिए खतरा बढ़ रहा है। स्थान-स्थान पर भूकंप, बाढ़, तूफान आदि प्राकृतिक प्रकोप जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर रहे हैं। ज्वालामुखी फटने की संभावनाएं प्रबल हो रहीं हैं। ऐसी स्थिति में प्रकृति के असीम दोहन से *तृतीय पुरस्कार प्राप्त आलेख (ग्रुप- बी) द्वारा- श्री बी. एन. बहल, सोमबाजार, चन्द्रनगर, दिल्ली-१११०५१
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