Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ ६ १. प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की वृत्ति पर अंकुश २. प्रकृति को स्वयं का एक भाग समझना ३. प्रकृति के साथ समरसता से रहना । जैन धर्म इन तीनों ही सिद्धान्तों को स्वीकार करता है । समरसता में रहना ही समत्व है। जैन धर्म की मूलभित्ति अहिंसा और जीवदया है तथा जीवदया पर्यावरण का विभिन्न अंग है। जैन धर्म ने २५०० वर्ष पूर्व ही वनस्पति जगत् में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर दिया था, आज विज्ञान ने उसे पुष्ट कर दिया है । प्रकृति का उल्लंघन करने से हम नयी-नयी विपदाओं को आमंत्रित करते हैं। यह उल्लंघन प्रायः लोभ और स्वार्थ के कारण होता है। इण्डोनेशिया के जंगलों में लगी भयानक आग इसका नवीनतम उदाहरण है। जिस प्रकार एक अंधा, मूक, पंगु, वधिर व्यक्ति पीड़ा का अनुभव करते हुए भी उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाता है, उसी प्रकार वनस्पति आदि अन्य जीव भी पीड़ा का अनुभव करते हैं किन्तु उसे व्यक्त करने में समर्थ नहीं होते। अतः व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य यही है कि उनकी हिंसा एवं उनके अनावश्यक दुरुपयोग से बचे। जिस प्रकार हमें अपना जीवन जीने का अधिकार है उसी प्रकार उन्हें भी है। ) (अत: जीवन जहाँ कहीं भी जिस किसी भी रूप में हो उनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। प्रकृति की दृष्टि से एक पौधे का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना एक मनुष्य का। पेड़-पौधे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने में जितने सहायक हैं, उतना मनुष्य नहीं है, वह तो पर्यावरण को प्रदूषित ही करता है। वृक्षों एवं वनों के संरक्षण तथा वनस्पति के दुरुपयोग से बचने के सम्बन्ध में भी जैन साहित्य में अनेक निर्देश हैं। जैन परम्परा में मुनि के लिए तो हरित वनस्पति को तोड़ने व काटने की बात तो दूर उसे स्पर्श करने का भी निषेध है। गृहस्थ उपासक के लिए भी हरित वनस्पति के उपयोग को यथाशक्ति सीमित करने का निर्देश है। इसके पीछे यह तथ्य रहा कि यदि मनुष्य जड़ों का ही भक्षण करेगा तो पौधों का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार उस पेड़ को जिसका तना मनुष्य की बाहों में न आ सकता हो, उसे काटना मनुष्य की हत्या के समकक्ष माना गया है। आचारांगसूत्र में वनस्पति के शरीर की मानव शरीर से तुलना करते हुए यही बतलाया गया है कि वनस्पति की हिंसा भी प्राणी की हिंसा के समान है। इसी प्रकार वनों में आग लगाना, वनों को काटना आदि गृहस्थ के लिए सबसे बड़ा पाप (महारम्भ) माना गया है क्योंकि उससे न केवल वनस्पति की हिंसा होती है, अपितु अन्य वन्य जीवों की भी हिंसा होती है और पर्यावरण प्रदूषित होता है, क्योंकि वन वर्षा और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के अनुपम साधन हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार वनस्पति के बिना जैविक प्रक्रिया असम्भव है। जैविक संतुलन बनाने के लिए पौधों का संरक्षण बहुत आवश्यक है। मानव जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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