Book Title: Sramana 2003 04
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ अब पीने और सिंचाई हेतु पानी मिलना भी दुष्कर हो गया। यही नहीं अब बड़े शहरों में प्राणवायु के थैले लगाकर चलना होगा। अत: मानव जाति के भावी अस्तित्व के लिए यह आवश्यक हो गया है कि पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करने का प्रयत्न अविलम्ब प्रारम्भ हो। आज का मनुष्य वनस्पति-जगत् को नाना प्रकार के साधनों द्वारा नष्ट करने और हानि पहुँचाने पर तुला हुआ है। महावीर के अनुसार वनस्पति जगत् भी एक विकलांग व्यक्ति की तरह ही होता है। यह अंध, वधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन है। वनस्पतियों को भी उसी तरह कष्टानुभूति होती है जिस प्रकार शस्त्रों से भेदन-छेदन करने में मनुष्यों को दुःख होता है। मनुष्य और प्रकृति के बीच शांतिपूर्ण सम्बन्धों के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रकृति नियमानुसार कार्य करती रहे। प्रकृति के क्रिया-कलापों में अनावश्यक हस्तक्षेप प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ता है। वर्तमान समय में अपने स्वार्थ और अहम् तुष्टि के लिए मनुष्य जिस तरह प्रकृति का शोषण कर रहा है, उससे प्रकृति का ‘समत्व' पूरी तरह असंतुलित हो गया है। ___ महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह उद्घोषणा की थी कि न केवल प्राणी जगत् एवं वनस्पति जगत् में जीवन की उपस्थिति है, अपितु उन्होंने यह भी कहा था कि पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि में भी जीवन है। वे यह मानते थे कि पृथ्वी, जल एवं वनस्पति के आश्रित होकर अनेकानेक प्राणी अपना जीवन जीते हैं, अत: इनके दुरुपयोग या विनाश स्वयं के जीवन का ही विनाश है। इसीलिए जैनधर्म में उसे हिंसा या पाप कहा गया है। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम, अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधारित है। विकास का मार्ग हिंसा या विनाश नहीं अपितु परस्पर सहकार है। एक दूसरे के पारस्परिक सहकार पर जीवन-यात्रा चलती है। आज जीवन जीने के लिए जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो हम ले सकते हैं, किन्तु उनके विनाश में हमारा भी विनाश निहित है। दूसरे की हिंसा वस्तुत: अपनी ही हिंसा है, इसलिए आचारांग में कहा गया है- जिसे तू मारना चाहता है, वह तो तू ही है- क्योंकि यह तेरे अस्तित्व का आधार है। पर्यावरण इस तथ्य का द्योतक है कि कोई भी अकेला प्राणी जीवन-यापन नहीं कर सकता, उसे आस-पास के भौतिक तत्वों का तो सहारा लेना ही पड़ेगा। साथ ही जीव समुदायों से भी वह पृथक नहीं रह सकता। पर्यावरणसंतुलन बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि जीवजन्तुओं और पशु-पक्षियों का संरक्षण किया जाये) जंगलों के कट जाने पर जो पक्षी घोंसला बनाया करते थे वे अन्यत्र चले गये और जो वहीं रह गये वे लुप्त हो गये। Jain Education International For Private & Personal Use Only For www.jainelibrary.org

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