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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ : ५५
नाक कान नैना कहै. रसना फरस विख्यात ।
हम काहू रोक नहीं, मुक्त लोक मैं जात ।।११।। पांचों इन्द्रियों में श्रेष्ठ कौन ?
स्वामी कहै तुम पांच हौ, तुममैं कौन सिरदार ।
तिनसैं चरचा कीजीयै, कहो अर्थ निरधार ।।१२।। १. घ्राणेन्द्रिय द्वारा आत्म-प्रशंसा -
नाक कहै प्रभु मैं बडौ, मोतें बडो न कोई । तीन लोक रक्षा करै, नाक कमी जिन होई ।।१३।। नाक रहै तो सब रहै, नाक गए सब जाय । नाक बरोबर जगत मैं, और न बड़ो कहाय ।।१४।। प्रथम वदन पर देखीयै, नाक नवल आकार । सुंदर महा सुहावनौ, मोहै लोक अपार ।।१५।। सीस नमत जगदीस कौं, प्रथम नमत हैं नाक ।
त्यौं ही तिलक विराजतौ, सत्यारथ जग वाक ।।१६।। चौपाई, भाषा-गुजराती
नाक कहै जगि हु बड़ो, मुझ सुनौ सब कोई रे । नाक रहै पतरे लोक मैं, नाक गए पत खोई रे ।।१७।। नाक राखन के कारणै, बाहुबलि बलवंत रे । देस तज्यौ दीक्षा ग्रही, पण न नम्यो चक्रवंत रे ॥१८॥ नाक राखण कै कारणै, रामचन्द्र जुध कीधो रे । सीता राणी बलकरी, बलतै संजम लीधो रे ।।१९।। नाक रखन सीता कीयौ, अगन कुंड मैं पैठी रे ।। सिंघासन देवन रच्यौ, तिहं उपर जा बैठी रे ।।२०।। दसार्णभद्र महामुनी, नाक राखन व्रत लीधो रे ।। इंद्र नम्यौ चरनै तहां, मान सकल तजि दीधो रे ॥२१॥ सागर हुवो रो धनी' छलथी दीक्षा लीधो रे । नाक तनी लज्जा करी, फिर नवि मन-सा कीधो रे ।।२२।। अभय कुंवर श्रेणिक, तणो, बेटो आज्ञाकारी रे ।
तुंकारौ तानै दीयौ, तत्क्षण दीक्षा धारी रे ।।२३।। १. 'अ' प्रति रिच्छा
४. अणि २. इज्जत
५. ब प्रति आणि ३. युद्ध
६. ब प्रति-सगर थयो सौरों धणी
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