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५४ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७
पंचेन्द्रिय संवाद
अथ पंच-इंद्रिन की चौपाई लिख्यते - दोहाः
मंगलाचरण प्रथम प्रणमि जिनदेव को, बहुरि प्रणमि जिनराय' । साधु सकल के चरन को, प्रणमुं सीस नवाय' ।।१।। नमो जिनेश्वर वैन कौं, जगत जीव सुखकार । जिस प्रसाद घटपट खुलैं, लहिये बुद्धि' अपार ।।२।। संवाद की पृष्टभूमि : मुनिराज की धर्मदेशना : इक दिन उद्यान मैं, बैठे श्री मुनिराज । धर्मदेशना देत हैं, भव्य जीव के काज ।।३।। समदृष्टि श्रावक तहाँ६, और मिले बह लोक । विद्याधर क्रीडा करत, आय गये बहु थोक ।।४।। चली बात व्याख्यान मैं, पांचौं .इंद्री दुष्ट ।। त्यों त्यों ए दुःख देत हैं, ज्यों ज्यों कीजै पुष्ट ।।५।। विद्याधर बोले तंहा, करि इंद्रिय कौ पच्छ ।
स्वामी हम क्यों दुष्ट हैं, देखो बात प्रतच्छ' ।।६।। पाँचों इन्द्रियों द्वारा अपनी महत्ता का एक साथ कथन -
हमही तैं सब जग लखे, यहि चेतन यही नाउं । इक इन्द्रिय आदिक सबै, पंच कहै जीय ठाउं ।।७।। हम ही तैं तप-जप होत है, हमनै क्रिया अनेक । हम ही तैं संयम पलै, हम बिन होय न एक ।।८।। रागी-दोषी हो जिय, दोस हमहिं किम देहु । न्याव हमारो कीजीये, यह विनती सुन लेहु ।।९।। हम तीर्थंकर देव पै, पाँचों है परतच्छ । कहो मुकति क्यों जात हैं, निज भावन कर स्वच्छ ॥१०॥
१. ब प्रति -शिवराय २. अ प्रति निवाय ३. अ प्रति नमहूं ४. अ प्रति लहीयै बुद्ध
५. ब प्रति भवि जीवन ६. अ प्रति तहों ७. पक्ष ८. प्रत्यक्ष ९. ब प्रति - जिहं
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