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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ : ६८
इसके चरण बिना किसी क्रम से इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के लक्षण वाले होते हैं । इसी प्रकार इसमें शालिनी और वातोंमी छन्दों के मिश्रण होते हैं या वंशस्थ और इन्द्रवेशी छन्दों का योग होता है जैसे -
श्रीमंतमानम्य जिनेन्द्रनेमिं
ध्यानाग्निदग्धाखिलघातिकक्षम् । व्यापारयामास न यत्र वाणान्
जगद्विजेता मकर ध्वजोऽपि ॥१-१॥ इन्द्रवज्रा - (स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ ग: ।।) इसके प्रत्येक चरण में क्रमश: तगण, तगण, जगण, और दो गुरु वर्ण होते हैं।
द्वीपोथ जंबूपपदोस्ति मध्ये
द्वीपांतराणामिव पार्थिवानाम् । यो वाहिनीनाथवृत: सुवृत्तो
_नित्यं जिगीषु प्रतिमश्चकास्ति ।।१-५।।। उपेन्द्रवज्रा- (उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ) के प्रत्येक चरण में जगण, तगण, जगण और अन्त में दो गुरु वर्ण होते हैं।
जिनेन्द्रवक्त्राम्बुजराजहंसी प्रणम्य शुक्लामथ भारती च ।
उपेन्द्रसूनोश्चरितं प्रवक्ष्ये
यथागमं पावनात्मशत्या ।। वसन्ततिलक' - (ज्ञेयं वसंततिलकं तभजा जगौ गः) के चारों चरणों में क्रमश: तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं ।
शंपेव कालजलदं शिखिनं शिखेव,
भानुं लभेव तनुचन्द्रमसं कलेव । वेलेव मीननिलयं कमलेव पद्यं,
सालंचकार तमिलाधिपतिं मृगाक्षी ॥१-५०॥ शार्दूलविक्रीडित' - (सूर्याश्वैर्यदि म: सजौ सततगा: शार्दूलविक्रीडितम्) के चारों चरणों में क्रमश: मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण और गुरु वर्ण होते हैं।
शृण्वन् धर्मकथां नमन् गुरुजनं क्रीडन् कलत्रैः समं कुर्वन् वैरिवल शरैरशरणं द्राक्कांदिशीकं रणे। संरक्षनिरुपद्रवं क्षितितल संभावयन सेवका - नित्थं कालमनारतं क्षितिपतिर्निन्ये विनीतैर्वृतः ।।१-५१।।
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