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श्रमण/ I/जुलाई-सितम्बर/ १९९७
आज वही स्थिति संसार के मानवों की हो रही है । उसे भी अपने मिथ्यात्व के सम्यक् निदान के लिए श्रीकृष्ण जैसे महाअवतार की आवश्यकता है । प्रस्तुत पुस्तक में महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ने मनुष्य की कुछ ऐसी ही सामान्य समस्याओं का समाधान गीता के आलोक में करने का प्रयत्न किया है। गीता के हार्द का जैनीकरण रूप देना इस पुस्तक की विशेषता है । सामान्य जन के लिए यह पुस्तक लाभकारी एवं उपयोगी सिद्ध होगी ।
डॉ० रज्जन कुमार
जैन कर्म सिद्धान्त और मनोविज्ञान - डॉ० रत्नलाल जैन, प्रकाशक- बी० जैन पब्लिशर्स (प्रा० ) लि०, नई दिल्ली, पृ०- २८१ + ( ९ ), साईज - डिमाई, कवर- हार्ड
बाउण्ड, मूल्य २५५/
प्रस्तुत ग्रन्थ एक शोध-प्रबन्ध है जिसे मेरठ विश्वविद्यालय ने पी एच० डी० उपाधि के लिए स्वीकृत किया है । इसमें कुल ८ अध्याय हैं- भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त, जैन कर्म सिद्धान्त की विशेषताएं, कर्म बंध के कारण, कर्मों की अवस्थाएं, ज्ञान मीमांसा - आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में, भाव जगत्- आधुनिक मनोविज्ञान के परिपेक्ष्य में, शरीर संरचना - आधुनिक शरीर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में एवं भाग्य-कर्म-रेखा को बदल सकते हैं ।
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प्रत्येक अध्याय की सामग्री संकलन में लेखक ने अत्यंत श्रम किया है जो प्रशंसनीय है । जैन कर्म सिद्धान्त संबंधी मान्यताओं को आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न हुआ है । कहीं-कहीं यह तुलना अत्यंत, सार्थक एवं सामयिक लगती है तो कहीं-कहीं उनमें भटकाव भी आ गया है। यहाँ यह लगने लगता है कि लेखक ने बलपूर्वक प्राचीन मान्यताओं को आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर वरीयता देने का प्रयत्न किया है । उनका यह प्रयत्न कर्मसिद्धांत की श्रेष्ठता को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने की उनकी प्रवृत्ति का द्योतक है । ग्रंथ शोध-अन्वेषणों से पूर्ण है । परिश्रम सराहनीय है । विद्वत् जगत् में इसका स्वागत होगा ।
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डॉ० रज्जन कुमार
कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया- लेखक- पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री प्रकाशकनिज ज्ञान-सागर शिक्षा कोश, मेडीक्योर लेबोरेट्री बिल्डिंग, प्रेमनगर, सतना (म०प्र०), प्रथम संस्करण- जून १९९३, पृष्ठ संख्या- ४४; मूल्य - तत्व जिज्ञासुओं के चिंतन हेतु ।
कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया के प्रस्तोता पं० जगन्मोहन लाल शास्त्री हैं, जो जैनशास्त्र एवं चिन्तन के जाने माने विद्वान् रहे हैं । उन्होंने इस पुस्तक में कर्मबन्ध और उसकी प्रक्रिया पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है । उसी सिलसिले में उन्होंने
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