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श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९७ : ७०
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चतुर्थ सर्ग में ६५ श्लोक हैं जो तीन प्रकार के छन्दों में बद्ध हैं - द्रुतविलम्बित, पृथ्वी २४, वसन्ततिलक२५ । इनमें द्रुतविलम्बित छंद का प्रयोग सबसे अधिक हुआ प्रस्तुत सर्ग के अभिनव छन्द पृथ्वी के लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैं - ( जसौ जसयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरु: २६)
अर्थात इसके प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, सगण, जगण, सगण, यगण, लघु तथा गुरु वर्ण होते हैं । इसमें आठ तथा नौ वर्णों पर यति होती है । प्रविश्य निजमंदिरं समुदितः समं बंधुभिर्न्यवेदयदिदं बने सुतमसूत मे ततो प्रकटगर्भिका विशतु सूतिगेहं मुद्रा
वल्लभा ।
पुरं कुरुत खेचराः क्षणपरं परिहारि च ||४/६३ ||
पञ्चम सर्ग में १५० श्लोक हैं जो वसन्तलिक २७ एवं शार्दूलविक्रीडित " में बद्ध हैं । इनका विवरण पूर्व में दिया जा चुका है ।
श्लोक हैं जिनमें तीन छन्द - अनुष्टुप् २९, उपजाति और अभिनव छन्दों के लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैं -
षष्ठ सर्ग में ९२ हैं
हरिणी ३१ प्रयुक्त हुए अनुष्टुप्
(पञ्चमं लघु सर्वत्र, सप्तमं द्विचतुर्थयोः ।
गुरु षष्ठं च पादानां शेषेष्वनियमो मतः ।।) इसके सभी चरणों में ? पाँचवां अक्षर लघु होता है, दूसरे व चौथे चरणों में सातवाँ अक्षर लघु तथा छठा गुरु होता है । शेष वर्णों के लिए कोई नियम नहीं होता । इसमें अक्षर संख्या आठ होती है ।
अस्त्यत्र भारते वर्षे
कोशलाविषयो महान् ।
स्वच्छाप्सरः समाकीर्णः
स्वर्गलोक इवापरः ॥
हरिणी३३
( नसमरसला गः षड्वेदैर्हयैर्हरिणी मता ।)
इसके चारों चरणों में क्रमशः नगण, सगण, मगण, रगण, सगण, लघु और गुरु वर्ण होते हैं । इसमें छः, चार और सात वर्णों पर यति होती है ।
सुकृतवशतो भूत्वा देवौ महर्द्धिविभूषणौ
सुरगिरिशिरश्चैत्यावासेष्वनुष्टितवन्दनौ ।
त्रिदशवनितावक्त्राम्भोजप्रगल्भमधुव्रतौ ।
सुखमवसतां तस्मिन्नेतौ चिरं तु चिराकृती | ६ / ९२ ॥
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