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८३ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७
(तत्कालीन मुनि यशोविजयजी) का भी है। अपने इस गुजराती लेख - "प्राचीन समय - में जैन साध्वियों की प्रतिमाओं' में इन्होंने वि० सं० १२०४ से १२९६ (ई०सं०११४७
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से १२३९) तक की जैन साध्वियों की तीन प्रतिमाओं का चित्रों सहित पूरा विवेचन किया है । खेड़ा जिले के (बड़ौदा के पास) मातर तीर्थ में विराजित और पाटन के अष्टापद मंदिर में विराजित साध्वी-प्रतिमा के लेख व चित्र दिये हैं । ये सभी मर्तियाँ बारहवीं शताब्दी की हैं । साध्वी-प्रतिमा का प्रचलन इससे पहले भी अवश्य रहा होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
आचार्य यशोदेवविजयजी ने तो और भी स्पष्ट लिखा है कि “साध्वी-प्रतिमा की प्रतिष्ठा का विधान १५वीं शताब्दी में रचित “आचार दिनकर" के तेरहवें अधिकार में सविधि व सविस्तार उल्लिखित मिलता है।
साध्वी प्रतिमा की लंबी परम्परा में दो अन्य प्रतिमाएं भी महत्त्वपूर्ण हैं । राजगृह (बिहार) नगर के मुख्य श्वेताम्बर मंदिर में मूलनायक प्रभु के वामवर्ती एक मध्य-युगीन तीर्थंकर प्रतिमा विराजमान है। उसमें प्रभु के पद्मासन के नीचे के भाग में, मूर्ति में ही सन्निहित एक साध्वी की प्रतिमा बनी हुई है । इसी तरह चित्तौड़ के किले में महान
आचार्य श्री हरिभद्रसरि महाराज के समाधि-मंदिर में उनकी ६१ इंच की जो मर्ति है, उसमें उनके मस्तक के पास ही महत्तरा साध्वी याकिनी की दर्शनीय मूर्ति बनी हुई है।
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