Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 125
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९५ किसने मेरे ख्याल में दीपक जला दिया ? : लेखक - उपा० गुप्तिसागर मुनि; प्रकाशन - साहित्य भारती प्रकाशन ; प्राप्ति स्थान - उपाध्याय गुप्तिसागर साहित्य संस्थान, इंदौर (म०प्र०) - ४५२००५; द्वितीय संस्करण, १९९७ ; मूल्य- ४०; पृ० १९५+ १० पृ० (विविध); साईज - डिमाई : हार्ड बाऊण्ड । किसने मेरे ख्याल में दीपक जला दिया ? पुस्तक का यह शीर्षक चिन्तन की उस सृजनात्मकता का बोधक है जो जन-जन के मानस में पनपता रहता है । मन एक कोरे कागज एवं बिना तराशे हुए उस प्राकृतिक पत्थर के समान होता है जिसमें नवीनता के प्रहाण को प्राप्त करने के अनगिनत अवकाश होते हैं । हमारी भावनायें, संस्कार और वृत्तियां जो मानव मन की सहज प्रवृत्तियां हैं निरंतर गतिमान रहती है । प्राय: ये मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों को विचलित करती हैं। इन्हीं के कारण मनुष्य अन्तर्द्वन्द्वों के अथाह सागर में डूबने लगता है । इनसे बचने का एकमात्र साधन है - मन की एकाग्रता । मुनिश्री ने अपनी इस कृति में एकाग्रता की ओजस्विता पर पर्याप्त चिन्तन किया है। ... प्रस्तुत कृति जनसमस्याओं को केन्द्र में रखकर रची गई है । इसकी अनुक्रमणिका इस तथ्य की पुष्टि करते हैं । कुछ सन्दर्भो को यहाँ रेखाचित्र के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है जो मुनिश्री की आधुनिक लेखन शैली पर प्रकाश डालता है । यह एक ऐसे सुलझे विचारक की भावनाओं को इङ्गित करता है जो नवीन विचारों का संवाहक होने के साथ-साथ आचार का भी धनी हो । जिसमें संवेदनशीलता का वह जागृत भाव हो जो क्रूरता, विषमता और स्वभाव की जटिलता जैसे अमानवीय कृत्य को समाप्त कर करुणा, समता और स्वभावगत सरलता जैसे मृदु भाव के प्रकाशन की क्षमता रखता हो । आदरणीय गुप्तिसागरजी ने अपनी इस कृति में इन्हीं बिन्दुओं को उजागर करने का प्रयत्न किया है। यद्यपि यह ललित-निबंधों की एक संग्रहीत कृति है, परंतु इसमें मानव के अन्तस को झकझोरने की पूरी सामर्थ्य है । इसमें सुप्त-संवेदनाओं को जगाकर भौतिकता की चकाचौंध से चौंधियायी हुई आँखों को एक नवीन एवं सौम्य प्रकाश प्रदान करने की क्षमता है । भाषा अत्यंत सरल तथा विचारों को प्रवाह सुगम ह । यह कृति एक सार्थक प्रयास के रूप में स्वीकार की जा सकती है क्योंकि इसने विचारों के विविध अवधारणाओं के प्रासंगिक स्वरूप को बड़ी सहज और संप्रेषणीय शैली में अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न किया है। मुनिश्री की इस उत्कृष्ट कृति के लिए जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा। डॉ० रज्जन कुमार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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