Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 126
________________ १२५ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ जिन वाणी-(सम्यग्दर्शन विशेषाकं) सम्पादक- डॉ० धर्मचन्द्र जैन प्रकाशकसम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर-३, राजस्थान, संस्करण- अगस्त १९९६, वर्ष ५३- विशेषांक- मूल्य- ५०/- रुपये प्रस्तुत पुस्तक में सम्यग्दर्शन पर अनैकान्तिक दृष्टि से विचार किया गया है । इसे विषय वैविध्य के कारण तीन खण्डों में विभाजित किया गया है । इसका प्रथम खण्ड शास्त्रीय विवेचनों से सम्बद्ध है जिममें सम्यग्दर्शन के स्वरूप, लक्षण भेदादि के साथ ही साथ सम्यग्दर्शन से संबंधित प्रश्नोत्तर भी विद्यमान हैं । इसमें जैन वाङ्मय में सम्यग्दर्शन, तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा में सम्यग्दर्शन का स्वरूप, कुन्दकुन्दाचार्य प्रतिपादित सम्यग्दर्शन का स्वरूप, श्रीमद् राजचन्द्र की दृष्टि में सम्यग्दर्शन आदि महत्त्वपूर्ण लेख भी सन्निहित हैं । द्वितीय खण्ड में - 'सम्यग्दर्शन : जीवन-व्यवहार' में प्रकाशित लेख संतों, मनीषियों एवं चिन्तकों द्वारा लिखित हैं । सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति होने से जीव की दिनचर्या कैसे परिवर्तित हो जाती है इसका विवेचन इसमें सुलभ है। तृतीय खण्ड में उन लेखों को समाविष्ट किया गया है जिसमें यहूदी, ईसाई , इस्लाम एवं पारसी धर्मों में श्रद्धा के महत्त्व को दर्शाया गया है । इस विशेषांक में संगृहीत लेख शोधपरक होने के साथ ही साथ मनुष्य की जीवनचर्या से सीधे जुड़े होने से प्रस्तुत "विशेषांक का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। अतएव पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। मुद्रण-कार्य निर्दोष है। सारगर्भित एवं आकर्षण भूमिका-लेखन हेतु सम्पादक धन्यवाद के पात्र हैं। जिन स्तोत्र संग्रह-संकलनकर्ती एवं रचयित्री-गणिनी आर्थिकी ज्ञानमती माताजी, प्रकाशक-दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) उ०प्र०, प्रथम संस्करण- जून १९९२, आकार-डिमाई, हार्ड बाउण्ड, पृ. ५३२, मूल्य -६४ रुपये। __ मानव अपने चरमलक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपाय करता है । अन्तत: वह उस उपाय को अपनाता है जो सरल एवं सहज हो । सम्भवत: जनसामान्य की इसी धारणा को ध्यान में रखकर अधिकांश उपदेष्टा भक्ति-मार्ग को ही प्रमुखता प्रदान करते हैं । इसी क्रम में माताजी ने जिन स्तोत्र संग्रह' नाम पुस्तक की संरचना की । प्रस्तुत संग्रह में विभन्न आचार्यों एवं स्वयं उनके द्वारा विरचित स्तुतियाँ संगृहीत हैं। उक्त संग्रह छ: खण्डों में विभाजित है । इसमें द्वितीय खण्ड से लेकर चतुर्थ खण्ड *की सम्पूर्ण रचनाएँ माताजी द्वारा विरचित हैं । सामान्य रूप में सभी खण्डों की अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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