Book Title: Sramana 1997 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 129
________________ १२८ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/ १९९७ चंदाप्रभु देव देख्या दुख भाग्यौ । या पृष्ठ ५० पर पद संख्या १४८ में, राग ललित तितालो हो जिनवाणी जू तुम मोकों तारोगी । कहीं-कहीं किसी पद में राग और ताल का क्रम उल्टा हो गया है जैसे- पृष्ठ ९ पर पद संख्या २८ में और पृष्ठ ३९ पर पद संख्या ११५ में । यहाँ राग दीपचन्दी परज छपा है जो राग परज लाल दीपचन्दी होना चाहिए था । इसी प्रकार पृष्ठ ७७ पर पद संख्या २२४ में राग दीपचन्दी सोरठ छपा है, जिसकी जगह राग सोरठ ताल दीपचन्दी होना चाहिए । कुछ पदों पर राग के नाम के स्थान पर ताल का नाम छपा है जैसे पृष्ठ ८५ पर पद संख्या २४४ पर राग दीपचन्दी लिखा है। इसी प्रकार पृष्ठ ९८ पर पद संख्या २७९ और पदसंख्या २८१ पर राग दीपचन्दी छपा है जो गलत है । दीपचन्दी राग नहीं होता अपितु १४ मात्रा का ताल होता है । यदि राग की जगह ताल दीपचन्दी होता तो ठीक रहता। इन २-४ गल्तियों को छोड़ कर संग्रह सुन्दर बन पड़ा है। इसमें थोड़ी सी एक कमी जो मुझे दिखाई देती है वह यह कि राग, ताल के साथ-साथ कुछ पदों का स्वरलिपिबद्ध वर्णन होता तो इस संग्रह में चार चांद लग जाते । जो सिर्फ सात सुरों को गाना या बजाना भर जानता है, जिसे राग विशेष की पूरी जानकारी भी नहीं है वह भी उन पदों को ज्यों का त्यों गा सकता था, जैसा रचयिता स्वयं गाना चाहता है । स्वरलिपिबद्ध पद होने से पुस्तक की पृष्ठ संख्या अवश्य कुछ अधिक हो जाती पर संगीत का थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वाला विद्यार्थी इन पदों को आसानी से ज्यों का त्यों गा बजा सकता था। ___ अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि सूर, मीरा, कबीर के पद की भाँति इस संकलन के पद भी सरल सुबोध हैं । जन-जन को भाव विभोर करने में समर्थ हैं । गागर में सागर भरे हुए हैं । प्रो० डॉ. कन्छेदी लाल जैन व श्री ताराचन्द जैन बधाई के पात्र हैं, जिनके अथक प्रयास से हमें १६ से २० शती के कवियों का यह संग्रह पढ़ने को मिला। श्रीमती ब्रजरानी वर्मा c/o पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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