________________
श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९७ : १२६
विशेषता है किन्तु तृतीय खण्ड में हिन्दी के आठ शम्भुछन्दों में जिनमाता के सोलह स्वप्न एवं स्वप्नफल का सुन्दर वर्णन तथा चतुर्थखण्ड में 'कल्याणकल्पतरु' नामक स्तोत्र में एक सौ चौवालीस छन्दों का प्रयोग मनोहारी है । 'चतुर्विंशतितीर्थङ्करस्तोत्र' में 'अर्थोदण्डक ' छन्द का प्रयोग तथा भगवान् आदिनाथ की स्तुति में 'एकाक्षरी छन्द का प्रयोग भी अपने आप में विलक्षण है जो उनकी लेखनशक्ति, कल्पनाशक्ति, ज्ञानशक्ति
और भक्ति की गहराई को दर्शाती है। हम उनके उक्त गुणों से प्रभावित होकर उन्हें नमन करते हैं ।
पुस्तक का मुद्रण कार्य निर्दोष एवं साज-सज्जा सन्तोषजनक है । चूँकि पुस्तक में प्रभु की वंदनाएँ संगृहीत हैं अतएव यह सभी के लिए संग्रहणीय है।
डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org