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श्रमण/ /जुलाई-सितम्बर/ १९९७ 40
अंग्रेजी अनुवाद है । गाथाएँ चार खण्डों में विभाजित हैं - ज्योतिर्मुख, मोक्षमार्ग, तत्त्वदर्शन और स्याद्वाद । उदाहरणार्थ कुछ गाथाएँ इस प्रकार हैं- सप्तभङ्गी नय सम्बद्ध गाथा है
अस्थि ति णत्थि दो विय, अवत्तव्वं सिएण संजुतं । अव्वत्तव्वा ते तह, पमाणभङ्गी सुणायव्वा ॥ ( अस्तीति नास्ति द्वावपि च अवक्तव्यं स्याता संयुक्तम् । अव्यक्तव्यास्ते तथा प्रमाणभङ्गी सुज्ञातव्या ॥ )
हिन्दी अनुवाद- स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्य- इन्हें प्रमाण सप्तभङ्गी जानना चाहिए ।
हिन्दी छन्दोबद्ध अनुवाद - स्यादस्ति नास्ति उभयावक्तव्य चौथा
भाई त्रिधा अवक्तव्य तथैव होता ।
यों सप्तभङ्ग लसते परमाण के हैं। ऐसा कहें जिनप आलय ज्ञान के हैं ।
इस ग्रन्थ को 'जैनगीता' भी नाम दिया गया है । इस सन्दर्भ में 'गीता' शब्द की व्युत्पत्ति '' धातु से न कर 'गी:' इस वाणी के वाचक शब्द से तल् प्रत्यय लगाकर. की गई है । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार भूमिका में की गई है- जैनस्य गी: (वाणी) इति जैनगी : तस्या: भावः जैनगीता ।
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गाथाओं की संस्कृत छाया में यत्र-तत्र अशुद्धियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं । जैसे पन्थानौ के लिये 'पथौ' शब्द ( गाथा ९१ )
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उड्डमधेतिरियं पि की छाया करने में अधस् को अव्यय नहीं मानकर लिखा गया । "ऊर्ध्वमधेस्तिर्यगपि च' । इसका शुद्धरूप होगा - ऊर्ध्वअधस्तिर्यगपि च (गाथा ३१९), गाथा (११३) में 'प्रेक्ष्य' के स्थान पर 'प्रेक्षित्वा' यह अशुद्ध रूप है । इस तरह की अनेक त्रुटियाँ इसमें मिलती हैं। इसके अतिरिक्त विसन्धिदोष भी अनेक स्थानों पर मिलते हैं । इन दोषों के बावजूद ग्रन्थ की उपयोगिता, गुणवत्ता तथा सर्वजनप्रियता निर्विवाद है । पुस्तक की छपाई और साजसज्जा उत्तम है । लेखक और प्रकाशक हार्दिक बधाई के पात्र हैं ।
प्रो० सुरेशचन्द्र पाण्डे
भू० पू० अध्यक्ष, प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग, पार्श्वनाथ विद्यापीठ
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